Tuesday, February 23, 2010

सलीब पर साहस

वे बस अपना फर्ज निभा रहे थे. मगर प्रशंसा के बजाय उन्हें मिली प्रताड़ना, परेशानियां और कभी-कभी मौत भी. तुषा मित्तल बता रही हैं कि भारत में व्यवस्था को कोसने के बजाय उसे बदलने का काम कितना जोखिमभरा है.

संजीव चतुर्वेदी की कहानी सही और गलत के बीच होने वाले सनातन संघर्ष की कहानी है. संयोग देखिए कि इसकी शुरूआत उसी कुरूक्षेत्र से होती है जहां महाभारत का युद्ध लड़ा गया था. लेकिन चतुर्वेदी का महाभारत थोड़ा अलग है. महाभारत में पांडव पांच थे. यहां चतुर्वेदी अकेले हैं. महाभारत में लड़ाई पांडवों ने नहीं छेड़ी थी. यहां छेड़ी है. यह लड़ाई अप्रैल, 2007 की एक दोपहर को शुरू हुई थी. तब चतुर्वेदी को कुरूक्षेत्र का डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर (डीएफओ) बने छह महीने ही हुए थे. नेशनल फॉरेस्ट एकेडमी, देहरादून में प्रशिक्षण के बाद उनकी यह पहली पोस्टिंग थी. हरियाणा के सबसे बड़े संरक्षित क्षेत्रों में से एक सरस्वती वन्यजीव अभ्यारण्य की देखभाल का काम उनके जिम्मे था. काले हिरण जैसी कई दुर्लभ प्रजातियों का बसेरा यह अभ्यारण्य 34 साल के चतुर्वेदी के लिए किसी मंदिर जैसा था और भारतीय वन सेवा का अधिकारी होने के नाते वे खुद को इसका संरक्षक मानते थे. उस दोपहर जब वे इसका दौरा कर रहे थे तो एक जगह पर अचानक कुछ देखकर वे जड़ हो गए. सामने का नजारा चौंकाने वाला था. बबूल, नीम और यूकेलिप्टिस के सैकडों पेड़ जमीन पर गिरे हुए थे और कई मशीनें मलबा साफ करने के काम में जुटी थीं. वन्यजीव सुरक्षा कानून का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हुए जरूरी मंजूरी लिए बिना अभ्यारण्य के बीच से एक विशाल नहर बनाने का काम चल रहा था.

चतुर्वेदी की लड़ाई को सिर्फ एक अभ्यारण्य बचाने का जुनून या भ्रष्टाचार उजागर करने की कोशिश के तौर पर देखना भूल होगी. दरअसल यह यह उस चीज को बचाने की लड़ाई है जिसे वे बहुत पवित्र समझते हैं. यह चीज है अपने बुनियादी कर्तव्य को निभाने का अधिकार

चतुर्वेदी ने तुरंत निर्माण कार्य रोकने के आदेश दिए. इसके बाद उन्होंने पेड़ों के अवैध कटान और पर्यावास के विनाश पर हरियाणा सिंचाई विभाग के ठेकेदारों और अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई. साथ ही उन्होंने राज्य के मुख्य वन्यजीव संरक्षक (चीफ वाइल्डलाइफ वार्डन) आरडी जकाती को भी इस बारे में सचेत कर दिया.

मगर अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय जकाती ने चतुर्वेदी के आदेश को ही निरस्त कर दिया. इसके बाद फौरन ही चतुर्वेदी का तबादला हो गया. चार साल बाद जकाती नेशनल फॉरेस्ट एकेडमी के निदेशक हैं जबकि चतुर्वेदी आज भी तबादलों, आरोपपत्रों और फर्जी एफआईआरों से जूझ रहे हैं. सही रास्ते पर चलने की उन्हें यह कीमत चुकानी पड़ रही है.

चतुर्वेदी की लड़ाई को सिर्फ एक अभ्यारण्य बचाने का जुनून या भ्रष्टाचार उजागर करने की कोशिश के तौर पर देखना भूल होगी. दरअसल यह यह उस चीज को बचाने की लड़ाई है जिसे वे बहुत पवित्र समझते हैं. यह चीज है अपने बुनियादी कर्तव्य को निभाने का अधिकार. चतुर्वेदी ने कभी अपने भाई राजीव (वे भी राजस्थान में तैनात आईएफएस अधिकारी हैं) से कहा था, ‘हम जनता के पैसे और प्राकृतिक संसाधनों के ट्रस्टी हैं.’ इसी सोच की वजह से चार साल के दौरान उनका 11 बार तबादला हो चुका है. किसी एक जगह पर उनका सबसे लंबा कार्यकाल साढ़े सात महीने का था. इन चार साल के दरम्यान वे जहां भी गए नई लड़ाई छेड़ते रहे.

कुरूक्षेत्र में अपनी पहली पोस्टिंग के साथ ही चतुर्वेदी की ख्याति एक ऐसे अफसर के रूप में फैल गई थी जिसे कोई भी लालच भ्रष्ट नहीं कर सकता. शायद इसीलिए यह मालूम होते हुए भी 110किमी लंबी हिसार-कुरूक्षेत्र नहर राज्य सरकार की प्रिय परियोजना है, उन्होंने निर्माण कार्य रोकने के आदेश दे दिए. 23 मई, 2007 को चतुर्वेदी ने एक रिपोर्ट सौंपी, जिसमें अभ्यारण्य को नुकसान पहुंचाए बिना नहर के लिए वैकल्पिक रास्ते सुझाए गए थे. मगर अगले ही दिन जकाती ने इसे खारिज कर दिया.

इसके बाद हरियाणा के मुख्य सचिव (वन) एचसी दिसोदिया ने चतुर्वेदी को एक पत्र लिखा जिसमें उनके इस कदम को ‘दुर्व्यवहार’ करार दिया गया था. इस पत्र के शब्द थे, ‘आपको चेतावनी दी जाती है कि आप भविष्य में इस तरह की गतिविधियों में शामिल न हों.’ चतुर्वेदी के तबादले के बाद वन विभाग ने अभ्यारण्य के भीतर पड़ने वाले नहर के हिस्से को वन्य जीवों के लिए जल स्रोत घोषित कर दिया जबकि इसमें पानी ही नहीं था. इसके बाद हरियाणा सरकार ने इसे आरक्षित वन भूमि के दायरे से बाहर कर दिया.

अगस्त 2007 में भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट नाम के एक गैरसरकारी संगठन ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय अधिकार प्राप्त (सीईसी) में एक याचिका दायर की. इस पर अपने बचाव में हरियाणा सरकार का कहना था कि ‘जो उल्लंघन हुए हैं वे तकनीकी प्रकृति के थे और जानबूझकर नहीं किए गए थे. सरकार ने हमेशा वन और वन्यजीवों के बेहतर प्रबंधन के लिए काम किया है.’ मगर अपने फैसले में सीईसी ने कहा कि ‘वन संरक्षण कानून के तहत जरूरी मंजूरी लिए बिना निर्माण कार्य शुरू कर दिए गए जो वन्यजीव सुरक्षा कानून का उल्लंघन है.’ मगर चूंकि अब भूमि को आरक्षित वन भूमि की श्रेणी से बाहर कर दिया गया था इसलिए सीईसी की नजर में दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का कोई अधिकार नहीं बनता था. हरियाणा सरकार पर एक करोड़ रुपए का जुर्माना लगाकर मामला खत्म कर दिया गया.

छरहरे बदन और खुशनुमा मिजाज के चतुर्वेदी खुद के सरकारी अधिकारी होने का हवाला देकर पहले-पहल तहलका से बात करने से मना कर देते हैं. मगर हिसार में उनसे बार-बार मिलना ज्यादा मुश्किल नहीं है जहां वे फिलहाल डिविजनल फॉरेस्ट ऑफिसर के रूप में तैनात हैं. जब हम उनसे कहते हैं कि वे एक योद्धा हैं तो वे हंसते हैं और कहते हैं कि उन्होंने खुद को कभी इस रूप में नहीं देखा. वे फर्ज के अपनी जवाबदेही में यकीन रखने वाले इंसान हैं और उन्हें लगता है कि अगर वे अपना दायित्व पूरा नहीं करते तो वे अपनी ही नजर में गिर जाएंगे. चतुर्वेदी के परिवार के लोग बताते हैं कि उनसे सुरक्षा लेने को कहा गया पर उन्होंने यह कहते हुए इससे मना कर दिया क्योंकि इससे यह संदेश जाता कि वे डरे हुए हैं. परिवारवालों के मुताबिक चतुर्वेदी ने उनसे कहा, ‘धर्म का अर्थ है बिना शिकायत अपना कर्तव्य पूरा करना, यह चिंता किए बिना कि इसके परिणाम क्या होंगे. मैं अपने काम का आनंद ले रहा हूं.’

कुरूक्षेत्र से चतुर्वेदी का तबादला एक दूरदराज के कस्बे फतेहाबाद कर दिया गया. यहां उन्हें पता चला कि उनका विभाग एक हर्बल पार्क के लिए दुर्लभ पेड़ों और जड़ी-बूटियों की खरीद पर करोड़ों रुपए खर्च कर रहा है. उन्हें यह भी जानकारी मिली कि यह पार्क सरकारी नहीं बल्कि एक निजी जमीन पर बनाया जा रहा है जो राज्य की वनमंत्री किरण चौधरी के करीबी बताए जाने वाले ताकतवर नेता प्रहलाद सिंह गिलाखेड़ा के परिवार की है. चतुर्वेदी ने तुरंत काम रोकने के आदेश दिए और इसकी जांच शुरू की कि इस काम के लिए पैसे की मंजूरी कैसे दी गई. मगर उनकी पीठ थपथपाने की बजाय 12 जुलाई, 2007 को हरियाणा के शीर्ष वन अधिकारी प्रधान मुख्य वन संरक्षक जेके रावत ने लिखा, ‘आदरणीय वन मंत्री इससे काफी नाराज थीं और उन्होंने मुझसे फौरन काम दोबारा शुरू करवाने के लिए कहा है.’ चतुर्वेदी के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें तीन अगस्त 2007 को निलंबित कर दिया गया. अचानक उनके लिए यह अब निजी गरिमा का मामला बन गया. उन्होंने फैसला किया कि खुद को निर्दोष साबित करने तक वे चैन से नहीं बैठेंगे. उनके भाई राजीव याद करते हैं, ‘उन्होंने कहा कि ये सिर्फ छोटे-मोटे झटके हैं, वे मुझे नहीं हरा सकते.’

चतुर्वेदी जीत भी गए. सेवा नियमों के मुताबिक निलंबन के 15 दिन के भीतर राज्य सरकार को इसके बारे में एक रिपोर्ट बनाकर केंद्र को देनी चाहिए थी. मगर ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं भेजी गई. निलंबन आदेश में इस कार्रवाई की कोई वजह नहीं बताई गई थी. इसमें सिर्फ यही लिखा गया था, ‘अनदेखी और बढ़ावे की गतिविधियों के चलते आपको निलंबित किया जाता है.’ चतुर्वेदी ने सूचना का अधिकार कानून के तहत वन विभाग में आवेदन कर अपनी निलंबन फाइल पर लिखी गई टिप्पणी की जानकारी मांगी. विभाग ने यह कहते हुए इससे मना कर दिया कि ऐसा करने से जांच प्रक्रिया में बाधा आएगी. चतुर्वेदी ने हार नहीं मानी. कई और आवेदनों के बाद राज्य सूचना आयोग ने मामले में दखल देते हुए विभाग से उन्हें यह टिप्पणियां देने को कहा.

ये टिप्पणियां चौंकाने वाली थीं और इससे वन मंत्री चौधरी पर भी सवाल खड़े होते थे. पहले वन विभाग के शीर्ष अधिकारी रावत ने लिखा था, ‘अधिकारी को किसी भी क्षेत्रीय शाखा में रखना विभाग के हितों के लिए ठीक नहीं होगा जहां कई योजनाएं और परियोजनाएं चल रही हैं और लोगों से लेन-देन का काफी व्यवहार हो रहा है.’ इसमें आगे जोड़ते हुए चौधरी के शब्द थे, ‘वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ बार-बार की अनुशासनहीनता को देखते हुए अधिकारी (चतुर्वेदी)को निलंबित किया जा सकता है.’ इसके बाद मुख्यमंत्री कार्यालय ने पहले तो यह लिखा कि चतुर्वेदी को अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए मगर इसके बाद तुरंत ही यू टर्न लेते हुए फाइल पर लिखा गया, ‘पुनर्विचार के बाद मुख्यमंत्री ने प्रस्ताव ‘बी’ को मंजूरी दे दी है.’

चतुर्वेदी ने अपने निलंबन के खिलाफ अपील की. जब केंद्र ने राज्य सरकार से इस बाबत पूछा तो कोई जवाब नहीं आया. इसलिए जनवरी, 2008 में राष्ट्रपति के आदेश पर इस निलंबन को रद्द कर दिया गया. निलंबन के दौरान ही उनके खिलाफ एक फर्जी एफआईआर दर्ज कर दी गई थी. इसमें उन पर धमकी देने और कचनार के एक पौधे की चोरी के आरोप थे. यह चोरी मार्च, 2007 में फतेहाबाद में हुई दिखाई गई थी, जबकि उस समय उनकी नियुक्ति वहां थी ही नहीं. बाद में अदालत में पुलिस ने यह मानते हुए अपनी एफआईआर वापस ले ली कि यह भ्रामक तथ्यों पर आधारित थी.

इसके बाद एकता परिषद नाम के एक गैरसरकारी संगठन ने हर्बल पार्क के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. इस पर अप्रैल, 2008 में हरियाणा सरकार को नोटिस जारी किया गया. निजी जमीन पर सरकार द्वारा पार्क बनाने की प्रक्रिया गैरकानूनी थी इसलिए इस पर पर्दा डालने के लिए इस जमीन को फरवरी, 2009 में संरक्षित वन घोषित कर इसका प्रबंधन वनविभाग के हवाले कर दिया गया. न कोई अपराधी साबित हुआ न किसी को सजा मिली. सिवाय चतुर्वेदी के जिन्होंने इस गड़बड़झाले को उजागर किया था. जनवरी, 2008 में बहाली के बाद उन्हें छह महीने तक बिना किसी नियुक्ति के रखा गया. और जब उन्हें नियुक्ति मिली तो यह उनके रैंक से नीचे की थी. वे इसके खिलाफ सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेशन ट्रिब्यूनल में गए और जीत गए.

सरकार हर तरफ से मुंह की खा चुकी थी. हारकर उसे चतुर्वेदी को झज्झर का डीएफओ बनाना पड़ा. यहां भी उन्होंने पांच करोड़ रुपए का घोटाला उजागर कर डाला जो फर्जी पौधारोपण पर खर्च किए गए थे. चतुर्वेदी ने अपने विभाग के सैकड़ों लोगों को खुद पेड़ गिनने के लिए कहा. इसके बाद उन्होंने विभाग के नौ अधिकारियों को निलंबित कर दिया और 40 लोगों को उनकी बर्खास्तगी के आदेश थमा दिए. फिर जैसी कि संभावना थी, उनका तबादला हो गया. चतुर्वेदी के घर की दीवारें और आलमारियां खाली हैं. ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं. कुरुक्षेत्र का यह योद्धा जानता है कि अगला तबादला भी जल्द ही हो सकता है.

भारत में संजीव चतुर्वेदी अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो साहस की सलीब टांगे हुए व्यवस्था बदलने की राह पर हैं. यहां हम ऐसे ही कुछ और लोगों के बारे में बता रहे हैं जिन्हें इस राह पर चलते हुए अनगिनत मुसीबतें उठानी पड़ीं, पड़ रहीं हैं लेकिन उससे डिगना इनको मंजूर नहीं है -

सिपाही, जिसे मिली सचेत करने की सजा : सतीश शेट्टी, पुणे

सतीश शेट्टी साधारण व्यक्ति नहीं थे. होते तो उनके दुश्मनों की संख्या इतनी ज्यादा न होती. जाली राशन कार्ड बेचने वालों से लेकर अवैध तरीके से संपत्तियों पर कब्जा जमाकर बैठने और करोड़ों रुपए का घोटाला करने वालों तक उनके दुश्मनों की सूची बहुत लंबी थी. शायद यही वजह थी कि पुणो से सटे तालेगांव में पले-बढ़े शेट्टी को 39 साल की उम्र में ही अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ा. 13 जनवरी, 2010 को दिनदहाड़े उन पर हमला हुआ और वह भी पुलिस स्टेशन के पास. अस्पताल पहुंचाए जाने के थोड़ी देर बाद उनकी मौत हो गई. शेट्टी का कसूर यही था कि वे गरीब किसानों को उनके साथ रहे धोखे से बचाना चाहते थे.

कई साल तक सबूत इकट्ठा करने के बाद शेट्टी ने इंस्पेक्टर जनरल ऑफ रजिस्ट्रीज (आईजीआर) तक शिकायत भेजी कि बडगाम-मवाल इलाके में जमीन की सैकड़ों अवध रजिस्ट्रियां हो रही हैं. नवंबर, 2009 में आईजीआर ने 2000 रजिस्टर्ड डॉक्यूमेंटों का ऑडिट शुरू किया जिसमें कम से कम 930 फर्जी पाए गए.चार भाई-बहनों में सबसे बड़े शेट्टी को आम तरीके से जीना कभी नहीं भाया. उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. न नौकरी की न शादी. पुणो की एक एडवरटाइजिंग फर्म में काम कर रहे उनके भाई संदीप कहते हैं, ‘समाज सेवा के पीछे वे पागल थे.’ बीस-इक्कीस साल की उम्र में ही वे समाज सेवा से जुड़ गए थे. रेलवे टिकट बुक करने से लेकर कर्ज लेने की प्रक्रियाओं में वे गांववालों की मदद करते. संदीप बताते हैं, ‘उन्हें हर जगह भ्रष्टाचार नजर आने लगा.’ जल्दी ही वे सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे द्वारा चलाए जा रहे भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से जुड़ गए. बाद में उन्होंने भ्रष्टाचार निर्मूलन समिति नाम का एक संगठन बनाया.

शेट्टी पहली बार तब सुर्खियों में आए जब 1996 में उन्होंने सार्वजनिक वितरण व्यवस्था में डेढ़ करोड़ के फर्जीवाड़े का पर्दाफाश किया. दरअसल इसमें एक राशन विक्रेता ने 200 जाली राशन कार्ड बना रखे थे. मामला सामने आने के बाद एक अदालत ने राशन विक्रेता का लाइसेंस रद्द करते हुए उस पर भारी जुर्माना लगाया. 2004 में शेट्टी के दुश्मनों की सूची में तब और इजाफा हुआ जब उन्होंने रेलवे की जमीन पर कब्जा किए बैठे कुछ ताकतवर लोगों का भांडाफोड़ किया. इनमें एक मेयर और कुछ नेता भी थे. मेयर को कुर्सी गंवानी पड़ी. रेलवे की जमीन पर अवैध रूप से बने सभी लोगों के बंगले गिरा दिए गए. ऐसे ही एक बंगले का मालिक और स्थानीय वकील विजय दाभाड़े अब शेट्टी की हत्या के मामले में एक अहम आरोपित है.

2005 में शेट्टी को सूचना का अधिकार (आरटीआई) के रूप में अपना सबसे मजबूत हथियार मिला. उस समय मुंबई-पुणो एक्सप्रेसवे की वजह से रियल एस्टेट की कीमतों में बहुत उछाल आया हुआ था. एक तरफ जमीन की कीमतें बढ़ रही थीं और दूसरी तरफ जमीनें कब्जाई जा रहीं थीं. जमीन हड़पने की कई कहानियों के साथ तमाम छोटे-बड़े किसान शेट्टी के पास आने लगे. शेट्टी को पता चला कि नियमों में कुछ ऐसे झोल हैं जिनका फायदा उठाकर किसी की मर्जी के खिलाफ भी उसकी जमीन की रजिस्ट्री और खरीद-फरोख्त हो रही है. संदीप बताते हैं, ‘वे जमीन के एक ऐसे ही छोटे से टुकड़े की पड़ताल कर रहे थे कि उन्हें 3000 करोड़ रुपए के एक घोटाले की गंध मिली. शायद यही वजह है कि वे आज जिंदा नहीं हैं.’

कई साल तक सबूत इकट्ठा करने के बाद शेट्टी ने इंस्पेक्टर जनरल ऑफ रजिस्ट्रीज (आईजीआर) तक शिकायत भेजी कि बडगाम-मवाल इलाके में जमीन की सैकड़ों अवध रजिस्ट्रियां हो रही हैं. नवंबर, 2009 में आईजीआर ने 2000 रजिस्टर्ड डॉक्यूमेंटों का ऑडिट शुरू किया जिसमें कम से कम 930 फर्जी पाए गए. रजिस्ट्रार को निलंबित कर दिया गया. करोड़ों रुपए के कारोबार वाली कंपनी आइडियल रोड बिल्डर्स (आईआरबी) की तरफ उंगलियां उठीं. संदीप बताते हैं, ‘आईआरबी द्वारा अधिग्रहीत की गई 1800 एकड़ जमीन सवालों के घेरे में आ गई. कंपनी को काफी आर्थिक नुकसान तो हुआ ही, उसे काफी बदनामी भी झेलनी पड़ी.’ इसके बाद शेट्टी को आशंका हो गई थी कि उनकी जिंदगी को खतरा हो सकता है. 24 नवंबर, 2009 को उन्होंने पुलिस सुरक्षा मांगी. मगर उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया. अब पुलिस का कहना है कि उनके आवेदन पर कार्रवाई हो रही थी.

शेट्टी की मौत पुलिस अक्षमता से ज्यादा उस फर्ज की प्रति उदासीनता की उस व्यापक समस्या को दर्शाती है जिसकी जड़ें गहरे धंसी हुई हैं. शेट्टी व्यवस्था के झोल जनता के सामने लाना चाहते थे. मगर वे झोल ही शायद उनकी जिंदगी लील गए. उनकी हत्या की जांच अब लोनावाला के एक दूसरे पुलिस अधिकारी को सौंप दी गई है. पांच लोग गिरफ्तार हुए हैं. प्राथमिक आरोपित दाभाड़े को संतोष शिंदे नाम के एक सब्जी विक्रेता के बयान के आधार पर गिरफ्तार किया गया था. पुलिस के मुताबिक इस सब्जी विक्रेता ने खुद ही पुलिस से संपर्क साधकर माना था कि दाभाड़े ने उसे शेट्टी की हत्या की सुपारी दी थी जो उसने ठुकरा दी थी. शेट्टी के परिवार ने जो एफआईआर दर्ज करवाई है उसमें मुख्य रूप से आईआरबी पर शक जाहिर किया गया है. कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों से इस मामले में पूछताछ की गई है मगर गिरफ्तारी कोई नहीं हुई है.

फिलहाल तो शेट्टी के परिवार के लिए उम्मीद की किरण बांबे हाईकोर्ट ही है जिसने खुद ही इस मामले का संज्ञान लेते हुए शेट्टी द्वारा इकट्ठा किए गए आरटीआई दस्तावेज मांगे हैं। संदीप कहते हैं, ‘कम से कम कोई तो अब इन दस्तावेजों को देखेगा. मेरे भाई को मारने से इंसाफ की प्रक्रिया नहीं रुकने वाली.’

‘हम सतर्क रहने की शपथ लेते हैं’ : एमएन विजयकुमार, बेंगलुरु

2006 की बात है. तब विजयकुमार डिपार्टमेंट ऑफ पब्लिक एंटरप्राइजेज के सचिव थे. एक दिन आधीरात के करीब उनके घर की घंटी बजी. दरवाजे पर कुछ लोग थे जिन्होंने कहा कि विजयकुमार के बड़े बेटे का एक्सीडेंट हो गया है और वे उनके साथ चलें. मगर विजयकुमार जानते थे कि उनका बेटा उनसे थोड़ी ही दूर पर आराम से सो रहा है. यह उनकी जुबान खामोश करने की एक और कोशिश थी. तकरीबन एक साल बाद दिसंबर, 2007 में जब वे बेलगाम में नियुक्त थे तो एक दिन एक हुड़दंगी उनके ऑफिस में घुस गया. उसने धमकी देने वाले अंदाज में कहा, ‘मैं दिनदहाड़े दो लोगों का खून कर चुका हूं और अभी-अभी जेल से बाहर आया हूं. मैं आपको एक बार देखना चाहता था.’ यह तब हुआ था जब आधिकारिक रूप से विजयकुमार को पुलिस सुरक्षा मिली हुई थी.

चालीस बार जान से मारने की धमकियां, तीन हमले, दस महीनों में सात ट्रांसफर...फिर भी एमएन विजयकुमार अपना काम उसी जुनून के साथ कर रहे हैं जो उनमें तब था जब 1985 में उन्होंने एक आईएएस अधिकारी के रूप में कर्नाटक से अपने करिअर की शुरुआत की थी

कर्नाटक कैडर के आईएएस अधिकारी के रूप में अपने 25 साल के कार्यकाल में विजयकुमार ने हमेशा भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ करने की कोशिश की है. वे कहते हैं, ‘अगर जनहित के खिलाफ कोई चीज हो रही है और आप अकेले हैं जो उनकी तरफ इशारा कर सकते हैं तो आपको बोलना होगा. जनसेवकों के रूप में हम सतर्क रहने की शपथ लेते हैं.’

अपनी जान पर खतरे के बारे में विजयकुमार केंद्रीय सतर्कता आयोग और कर्नाटक मानवाधिकार आयोग, दोनों को लिख चुके हैं मगर कोई फायदा नहीं हुआ. जब उनकी पत्नी जयश्री को यह अहसास हो गया कि व्यवस्था में किसी को भी उनके पति की जान की परवाह नहीं तो उन्होंने जनता के पास सीधे जाने का फैसला किया. जैसा कि वे बताती हैं, ‘मैंने एक वेबसाइट बनाई और हर चीज को दस्तावेज के रूप में इस पर सहेजना शुरू किया. मैं नहीं चाहती थी कि इंसाफ के लिए लड़ाई मुझे उन्हें खोने के बाद छेड़नी पड़े.’

2007 में वेबसाइट शुरू होने के बाद जल्द ही विजयकुमार को तत्कालीन मुख्य सचिव पीबी महिषि की चिट्ठी मिली. इसमें कहा गया था कि सरकारी सेवक की पत्नी इस तरह की वेबसाइट नहीं चला सकती क्योंकि पति और पत्नी के रूप में वे दोनों एक ही इकाई हैं. इसमें यह भी कहा गया था कि वेबसाइट जारी रखने के लिए जयश्री को अपने पति से अलग होना होगा.

इस दंपत्ति के लिए मुसीबत तब शुरू हुई थी जब ऊर्जा सुधार विभाग में विशेष सचिव के रूप में तैनात विजयकुमार ने 344 करोड़ रुपए के दुरुपयोग के खिलाफ आवाज उठाई थी. 2005 में उन्होंने इस बारे में कर्नाटक के मुख्य सचिव को 30 पन्नों की एक रिपोर्ट सौंपी. जैसा कि वे बताते हैं, ‘सबसे बुरी चीज जो मुझे लगी वह यह थी कि गरीबों के लिए किए गए कामों पर करोड़ों रुपए खर्च करने के दावे किए गए थे. जबकि आंकड़े इसके उलट कहानी कह रहे थे.’ आधिकारिक तौर पर गरीबों तक बिजली पहुंचाने के लिए भारी सब्सिडियां दी जा रही थीं. मगर 800 गांवों के टैरिफ और मीटर रीडिंगों का अध्ययन करने के बाद विजयकुमार ने पाया कि असल में गरीबों के नाम पर अमीरों को सब्सिडियां मिल रही थीं.

तब के मुख्य सचिव केके मिश्रा ने विजयकुमार को चेतावनी दी थी कि वे संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई न करें. विजयकुमार के मुताबिक मिश्रा ने उनसे कहा, ‘वे तुम्हें खत्म कर देंगे. ऐसा मत करो. वे तुम्हें बर्बाद करने के लिए किसी भी हद तक चले जाएंगे.’ मगर विजयकुमार माने नहीं. मिश्रा जल्द रिटायर हो गए और कुछ समय बाद उनकी जगह पीपी महिषि ने ले ली. विजयकुमार ने मांग की कि उनकी रिपोर्ट पर कार्रवाई की जाए वर्ना वे इसे सार्वजनिक कर देंगे. महिषि का जवाब था, ‘मुझे इससे भी बड़े घोटालों की खबर है. तुम इतना शोर क्यों मचा रहे हो?’ जयश्री भी इस बैठक के दौरान मौजूद थीं. वे महिषि के शब्द याद करती हैं, ‘भ्रष्टाचारियों के ऊपर मेरा हाथ है. जांच करने की जरूरत नहीं.’

तहलका ने जब इस बारे में महिषि से संपर्क किया तो उन्होंने माना कि विजयकुमार उनसे मिले थे. मगर उनका कहना था, ‘वे मेरे पास ऐसी कोई रिपोर्ट लेकर नहीं आए थे जिस पर मैं कार्रवाई करता. इसलिए मैंने उनसे कहा कि वे अपना काम करें और भ्रष्टाचार से निपटने का काम दूसरी संस्थाओं पर छोड़ दें. वे झूठे आरोप लगा रहे हैं.’ महिषि आगे यह भी जोड़ते हैं कि उन्होंने विजयकुमार के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की थी और अपने और विजयकुमार के बीच के पत्राचार को मनोरोगी वार्ड को भेज दिया था. विजयकुमार कहते हैं, ‘ऐसा लगता है कि मुख्य सचिव ने मेरी रिपोर्ट उन्हीं लोगों को दे दी जिनके खिलाफ मैंने शिकायत की थी. बाद में आरटीआई के तहत आवेदन लगाने पर पता चला कि मेरी रिपोर्ट का कहीं कोई पता नहीं.’

सितंबर 2006 से जून 2007 के बीच विजयकुमार का सात बार तबादला किया गया. एक बार तो उन्हें अपने रैंक से नीचे का पद तक दे दिया गया जबकि असल में उनका प्रमोशन होना था. इन्हीं तबादलों के दौरान एक बार उन्हें एक ऐसे विभाग में भेज दिया गया जो काम ही नहीं कर रहा था. यहां उन्हें चार महीनों तक तनख्वाह नहीं मिली.

विजयकुमार जहां भी गए भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ न कुछ करते रहे और नतीजतन उन्हें फिर दूसरी जगह पटका जाता रहा. बेंगलुरू का क्षेत्रीय आयुक्त बनने के बीस दिन बाद ही विजयुकमार ने एक योजना बनाई जिसमें जनता सूचना के अधिकार के तहत आने वाली जानकारी को बिना किसी झंझट के सीधे इंटरनेट पर देख सकती थी. इसमें खास दिन या समय जैसी कोई बाधा नहीं होती. मगर योजना अमल में आने से दो दिन पहले ही उनका तबादला कर दिया गया. इसके बाद उन्हें मैसूर लैंप्स नाम की एक कंपनी की एक बेकार पड़ी इकाई का प्रबंध निदेशक बना दिया गया. जब उन्होंने इसे पुनर्जीवित करने की एक योजना बनाकर सौंपी तो तबादला कर उन्हें बेलगाम भेज दिया गया. यहां उन्हें कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी में एक ऐसे पद पर काम करना था जो दरअसल इंजीनियरों के लिए होता है.

यह दिसंबर, 2007 की बात है. विजयकुमार ने पुलिस सुरक्षा के बिना बेलगाम जाने से इनकार कर दिया. उन्हें सुरक्षा तो मिली पर सिर्फ कागजों पर. जयश्री बताती हैं, ‘अधिकारी एक बार भी हमारे यहां आए बिना अपनी बीट बुक भरते रहे.’ इस तरह की पुलिस सुरक्षा में रहते हुए विजयकुमार पर दो जानलेवा हमले हुए. जैसा कि वे याद करते हैं, ‘पुलिस का कहना था कि वे मेरी सुरक्षा नहीं कर सकते इसलिए मुझे सीबीआई सुरक्षा के लिए कहना चाहिए.’ इन दिनों वे प्रधान सचिव के स्तर के पद पर हैं और कर्नाटक सिल्क मैनेजिंग बोर्ड के चेयरमैन बनकर काम कर रहे हैं जो कि काफी हद तक नाम का ही पद है.

मगर विजयकुमार यह प्रताड़ना झेलने वाले अकेले नहीं हैं. 2006 से उनकी पत्नी जयश्री उनके समर्थन में लगातार आरटीआई आवेदन दाखिल कर रही हैं. जब भ्रष्टाचार पर बनी एक उच्चस्तरीय समिति की कार्यशैली के बारे में पूछे गए उनके सवालों का कोई जवाब नहीं मिला तो जयश्री ने कर्नाटक सूचना आयोग की शरण ली. आयोग की इमारत से वे बाहर निकली ही थीं कि एक शख्स ने उनका रास्ता रोककर उनसे कहा, ‘अपने सभी आवेदन वापस ले लो वरना नतीजे बहुत खतरनाक होंगे.’ एक अन्य घटना में जब वे मुख्य सचिव के खिलाफ मिली एक जानकारी को सार्वजनिक करने के लिए एक प्रेस

कॉफ्रेंस में जा रही थीं तो एक बस ने उनकी कार में टक्कर मारने की कोशिश की. जयश्री बताती हैं, ‘ड्राइवर की सतर्कता से हम बच गए. हमारी किस्मत ठीक रही है. जब भी किसी ने हमें नुकसान पहुंचाने की कोशिश की, कोई न कोई हमें बचाने के लिए मौजूद रहा. मुझे नहीं पता ऐसा कब तक चल पाएगा.’

‘अब भी मेरी जान को खतरा है’

एचएस डिलिमा

पांच साल पहले 75 वर्ष के बुजुर्ग पर उनके घर के सामने हंसिए से हमला हुआ. खून से लथपथ होने के बावजूद उन्होंने हमलावर से जूझते हुए अपनी जान बचाई. तब से पांच वर्ष बीत गए. डिलिमा कई बार हमलावर को अंधेरी इलाके में आजादी से घूमते हुए देख चुके हैं. वे उसके घर का पता जानते हैं और उन्होंने कई बार पुलिस को वहां तक पहुंचाने की पेशकश की. इसके बावजूद मुंबई पुलिस ने यह कह कर उनका केस बंद कर दिया कि उनके हमलावर को खोजा नहीं जा सका.

डिलिमा की व्यथा कथा इतनी भर नहीं है. हमले से कुछ ही महीने पहले उन्होंने पुलिस से सुरक्षा की मांग की थी, क्योंकि किसी ने उन्हें जान से मारने की धमकियां दी थीं. यह वही आदमी था, जिसने बाद में उनकी जान लेने की कोशिश कीलेकिन डिलिमा की व्यथा कथा इतनी भर नहीं है. हमले से कुछ ही महीने पहले उन्होंने पुलिस से सुरक्षा की मांग की थी, क्योंकि किसी ने उन्हें जान से मारने की धमकियां दी थीं. यह वही आदमी था, जिसने बाद में उनकी जान लेने की कोशिश की. लेकिन डालमिया को कोई सुरक्षा नहीं दी गई. आज भी वे बिना सुरक्षा के ही घूमते हैं. पिछले एक दशक से डिलिमा मुंबई के अंधेरी पश्चिम इलाके में अवध इमारतों के निर्माण के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं. वे बताते हैं,‘इस इलाके तक पहुंचने वाले सभी रास्तों पर अवैध इमारतें बन गई हैं. इस इलाके में अब सिर्फ उसी तंग गली के जरिए पहुंचा जा सकता है जहां मैं रहता हूं.’

उनकी शिकायतें वर्षो तक धूल खाती रहीं. नवंबर, 2004 में अधिकारियों ने एक शिकायत पर कार्रवाई की. डिलिमा ने कुछ तसवीरों की मदद से बॉम्बे म्युनिसिपल कारपोरेशन (बीएमसी) से लड़ाई लड़ी और एक स्टे ऑर्डर जारी करवाने में सफल रहे. जल्दी ही अंधेरी की लेन नं 1 का हाउस नं 77 ढहा दिया गया. यह एक छोटी सी जीत थी जिसने आगे के लिए उम्मीदें बड़ी कर दी थीं.

लेकिन इस छोटी सफलता के लिए भी डिलिमा को कीमत चुकानी पड़ी. कुछ ही महीने बाद मार्च, 2005 में एक दिन जब डिलिमा अपने घर लौट रहे थे, तो उनके घर के बाहर उन पर पीछे से हमला हुआ. यह हमला हंसिए से हुआ था. उन्होंने मामले की एफआईआर में कम से कम 8 लोगों के नाम दर्ज कराए, जिन पर उन्हें शक था. तब से डिलिमा न केवल भू-माफियाओं से बल्कि उस पुलिस और व्यवस्था से भी जूझ रहे हैं जिसका फर्ज ही है नागरिकों की सुरक्षा. उनके अनुसार पुलिस ने जांच के नाम पर सिर्फ खानापूरी की. 2006 में एक संक्षिप्त रिपोर्ट जमा कर मामले को बंद कर दिया गया. लेकिन डिलिमा को इसकी जानकारी नहीं थी. जब इस बारे में उनके सवालों को नहीं सुना गया तो उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत एक आवेदन किया. तब कहीं जाकर जनवरी, 2007 में उन्हें पता लगा कि संदिग्धों के खिलाफ कोई कार्रवाई ही नहीं की गई.

इस बीच डिलिमा ने अपनी खोज-बीन के जरिए 2004 में अपनी हत्या की सुपारी देनेवालों के बारे में कुछ पक्की सूचनाएं जमा कर ली थीं. वे उन्हें लेकर अपना मामला फिर से शुरू करने के लिए जून, 2007 में अंधेरी के डीजीपी और एसीपी से मिले. लेकिन अधिकारियों ने केस को फिर से खोलने से मना कर दिया. तब एक लंबी कानूनी लड़ाई के बाद मजिस्ट्रेट के आदेश से नवंबर, 2008 में मामला फिर से खुल सका.

लेकिन डिलिमा बताते हैं कि इसके बावजूद कुछ खास कार्रवाई नहीं हुई है. जांच भी रुकी हुई है. इसे लेकर उन्होंने बीएमसी और मुंबई पुलिस को कम से कम 200 चिट्ठियां लिखी होंगी. उन्होंने आरटीआई के तहत जमा किए गए सबूत पेश किए हैं जो करोड़ों रुपए के अवैध निर्माण की तरफ इशारा करते हैं. डिलिमा कहते हैं, ‘मुंबई का बिल्डिंग प्रपोजल्स डिपार्टमेंट खुद ही मानता है कि इन निर्माणों के लिए उससे मंजूरी नहीं ली गई थी.’

लेकिन इसके बावजूद कोई कार्रवाई नहीं हो रही है. 2006 में डिलिमा ने मुंबई हाई कोर्ट में इन्हीं सबूतों के साथ एक जनहित याचिका दायर की थी, जो अब भी लंबित पड़ी है. जबकि डिलिमा को अब भी धमकियां मिल रही हैं. दो महीने पहले उन्हें मुंबई के भू-माफिया की चिट्ठी मिली है, जिसमें कहा गया था कि उनकी हत्या के लिए पांच लाख की सुपारी दे दी गई है.

डिलिमा कहते हैं, ‘मेरे जैसे कार्यकर्ता तब तक सुरक्षित नहीं हैं जब तक पुलिस जवाबदेह और जिम्मेदार नहीं बनती जो कि उसे भारतीय संविधान के मुताबिक होना चाहिए। अब भी मेरी जान को खतरा है.’

सच्चाई की राह पर चलना बड़ा मुश्किल है’ : शिवप्रकाश, बिहार के एक किसान

बिहार के बक्सर जिले में स्थित सरिन्जा गांव के शिवप्रकाश को कई साल तक यही लगता रहा कि भारत को लोगों को असली आजादी तो 2005 में मिली जब सूचना का अधिकार कानून पास हुआ. लेकिन जब इस आजादी का इस्तेमाल करने की कोशिश में उन्हें और उनके जसे 18 लोगों को मार खानी पड़ी और जेल जाना पड़ा तो उनकी यह खुशफहमी अब दूर हो गई है.

'डीएम ने मुझे नौ सादे कागज दिए. उन्होंने मुझ पर यह लिखने के लिए दबाव डाला कि मुझे वे सूचनाएं मिल गई हैं, जिनकी मांग मैंने की थी. जब मैंने इसका विरोध किया, तो उन्होंने धमकी देनी शुरू की. वे कहने लगे-’मैं तुम्हें और तुम्हारे परिवार को बरबाद कर दूंगा. मैं तुम्हें जेल भेज दूंगा’

2005 से प्रकाश सूचना के अधिकार का इस्तेमाल उन चीजों से जुड़ी जानकारियां पाने के लिए कर रहे थे जो उनके गांव के किसानों की रोजमर्रा की जिंदगी को प्रभावित करती हैं, जैसे वार्ड कमिश्नर ने अपने कार्यकाल में कितना काम किया है या सरकारी योजनाओं से कितने किसानों को फायदा पहुंचा है आदि. उदाहरण के लिए केंद्र सरकार ने गरीब किसानों के लिए हैंडपंप की खरीद और ट्यूबवेल लगवाने पर 35 प्रतिशत की रियायत दी थी. आरटीआई दस्तावेजों के अनुसार प्रकाश ने पाया कि स्थानीय प्रशासन के दावों में भारी विसंगतियां हैं. वे बताते हैं कि प्रशासन ने स्टेशन रोड स्थित नवीन हार्डवेयर से 1000 ट्यूबवेलों या पीपी रोड स्थित अनिल मशीनरी के यहां से पंपसेटों की खरीद की सूची बनाई है. लेकिन इन दुकानों का अस्तित्व ही नहीं है. खरीद की अधिकतर रसीदें जाली हैं. प्रकाश को अनुमान है कि उनके अपने जिले में ही 10 करोड़ से अधिक का घोटाला हुआ है. उन्हें यकीन है कि इस तरह की धोखाधड़ी पूरे राज्य में चल रही है.

इसके बाद प्रकाश ने कई और सवाल पूछे. आवेदनों की बड़ी संख्या देख कर स्थानीय प्रशासन जवाब देने से कतराने लगा. 2006 में प्रकाश ने बक्सर जिला मजिस्ट्रेट कार्यालय से शिक्षित बेरोजगार योजना के लाभार्थियों और सरकारी रियायती दर पर हैंडपंप और ट्यूबवेल खरीदनेवाले किसानों की सूची मांगी. वे कहते हैं, ‘मुझे लगा कि सरकारी फंड से करोड़ों रुपए फर्जी नामों पर उठाए गए हैं.’ लेकिन उन्हें प्रशासन से कोई जवाब नहीं मिला. इसके बाद प्रकाश ने नियमित अंतराल पर डीएम के कार्यालय को नौ आवेदन भेजे. जब उन्हें कोई जवाब नहीं मिला तो प्रकाश ने बिहार सूचना आयोग से संपर्क किया. उन्हें उम्मीद कम ही थी मगर आयोग ने उनकी शिकायतों पर कार्रवाई की और डीएम से जवाब तलब किया. प्रकाश कहते हैं, ‘इसीलिए डीएम ने तय कर लिया था कि मुझे सबक सिखाना है.’

बक्सर लौटते ही डीएम ने प्रकाश से कहा कि सारी सूचना उनके चेंबर में रखी हुई है और वे आकर उन्हें ले लें. प्रकाश 2 फरवरी, 2008 को डीएम कार्यालय पहुंचे. लेकिन यहां घटी घटना ने प्रकाश के जीवन को एक दूसरी ही दिशा दे दी. प्रकाश बताते हैं, ‘डीएम ने मुझे नौ सादे कागज दिए. उन्होंने मुझ पर यह लिखने के लिए दबाव डाला कि मुझे वे सूचनाएं मिल गई हैं, जिनकी मांग मैंने की थी. जब मैंने इसका विरोध किया, तो उन्होंने धमकी देनी शुरू की. वे कहने लगे-’मैं तुम्हें और तुम्हारे परिवार को बरबाद कर दूंगा. मैं तुम्हें जेल भेज दूंगा.’ जब प्रकाश ने झुकने से इनकार किया तो पुलिस बुला कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया. उनके खिलाफ डीएम से रंगदारी वसूलने और उनकी हत्या करने की कोशिश के आरोप में एक एफआईआर दायर की गई. 29 दिन तक हिरासत में रहने के बाद प्रकाश सबूतों के अभाव में छूट गए.

जेल से निकलने के बाद प्रकाश का इरादा और मजबूत हुआ. उन्होंने हर जिले में घूम-घूम कर लोगों को आरटीआई और इसके उपयोग के बारे में बताया. उन्होंने अपने जैसे कुछ लोगों के साथ मिल कर आरटीआई मंच का गठन किया ताकि आरटीआई कार्यकर्ताओं को सुरक्षा दी जा सके. प्रकाश बताते हैं कि अन्य 18 कार्यकर्ताओं को भी निशाना बनाया गया है और उन्हें जेल भेजा गया है. वे कहते हैं, ‘डीजीपी ने खुद स्वीकार किया है कि बिहार में आरटीआई कार्यकताओं के खिलाफ जांच के 30 मामले चल रहे हैं.’

आजादी का शुरुआती भ्रम तेजी से बिखर रहा है. लेकिन प्रकाश अब भी डटे हुए हैं. वे कहते हैं, ‘मेरे घरवालों को यह काम पसंद नहीं. उन्हें हम बेवकूफ लगते हैं. ऐसा लगता है कि केवल भ्रष्ट लोगों को ही दौलत और शोहरत मिल सकती है. सच्चाई के रास्ते पर चलना बड़ा मुश्किल है.’

‘मैंने हार मान ली है’

सूर्यकांत शिंदे, मुंबई

बांबे पोर्ट ट्रस्ट (बीपीटी) में दो दशक तक काम करने के बाद नवंबर, 2009 में सहायक सुरक्षा अधिकारी सूर्यकांत शिंदे को बरखास्त कर दिया गया. उन्हें पांच लोगों का परिवार पालना था, होम लोन चुकाना था और उनका बैंक खाता लगभग खाली था. 45 वर्षीय शिंदे कहते हैं, ‘मैंने हार मान ली है. अब मैं जनता की भलाई के लिए और काम नहीं करना चाहता.’

अगस्त में शिंदे ने जहाजरानी मंत्रालय से शिकायत की. वे बताते हैं कि मंत्रालय ने शिकायत पोर्ट ट्रस्ट के चेयरमैन को भेजी और चेयरमैन ने इसे उसी मुख्य सुरक्षा अधिकारी के पास भेज दिया जिसके खिलाफ शिंदे ने शिकायत की थी

उनकी इस हताशा की शुरुआत कुछ साल पहले हुई थी जब शिंदे को आपराधिक साजिश रचने और मुंबई बंदरगाह पर आए कंटेनरों से केमिकल चुराने के आरोप में दो माह के लिए जेल भेज दिया गया. स्थानीय पुलिस ने उन्हें मुख्य साजिशकर्ता बताया. हालांकि शिंदे ने ही चोरियों को उजागर करने की कोशिश की थी. वास्तविकता यह थी कि शिंदे का पहले ही उस इलाके से तबादला कर दिया गया था जहां चोरियां हुई थीं. चोरियों के समय वे हेपेटाइटिस से पीड़ित थे और अस्पताल में भर्ती थे. इस मामले में दो वर्ष बाद एक जज ने उन्हें बरी कर दिया. शिंदे पर तीन अधिकारियों ने आरोप लगाए थे. यहां यह उल्लेखनीय है कि कुछ ही महीने पहले शिंदे ने एक घोटाला उजागर किया था, जिसमें मुख्य सुरक्षा अधिकारी समेत यही तीनों लोग संदेह के घेरे में आए थे. बाद में उन्होंने शिंदे को फंसाने की कोशिश की थी.

फरवरी, 2005 में शिंदे ने दवा बनाने के काम आनेवाले महंगे केमिकल्स और दवाओं की तस्करी से संबंधित एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपी. 10 करोड़ रुपए से भी अधिक मूल्य की यह तस्करी बंदरगाह पर मौजूद कंटेनरों से छह महीने से हो रही थी. उन्होंने कंटेनरों और उनकी जगह तथा संदिग्धों के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी. उनके अनुसार संदिग्धों के नाम थे-बरकत अली, परवेज और अमरसिंह राजपूत. ये सभी वांछित तस्कर थे.

शिंदे कहते हैं कि उन्होंने रिपोर्ट पुलिस, बीपीटी चेयरमैन तथा कस्टम और सतर्कता विभाग को सौंप दी थी लेकिन उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. जब अखबार द इंडियन एक्सप्रेस ने चोरियों की खबर छापी तो मुंबई पुलिस की अपराध शाखा हरकत में आई और शिंदे के दफ्तर पहुंची. शिंदे की शिकायत का उल्लेख करते हुए पांच एफआईआर दर्ज की गईं. तस्करों के गिरफ्तार होने तक शिंदे ने पुलिस की मदद की. लेकिन डच्यूटी पर तैनात बीपीटी अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई. शिंदे बताते हैं कि ऐसी चोरियां गेट पास और कंटेनरों की खुफिया सूचना के बिना नहीं हो सकतीं. उन्होंने चोरियों के सात और मामलों को उजागर किया लेकिन अपराध शाखा ने उन मामलों को स्थानीय पुलिस के पास भेज दिया. हैरत की बात यह है कि उनमें से तीन मामलों में शिंदे को ही फंसा दिया गया और 5 जुलाई, 2005 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. अप्रैल, 2007 में बरी होने तक उनके दो लाख रुपए मुकदमा लड़ने और जमानत हासिल करने में खर्च हो चुके थे.

1994-97 के बीच शिंदे ने मुंबई बंदरगाह पर आयातित तेल की चोरियों का मामला उजागर किया था. कुछ आरोपित पकड़े गए और कुछ तेल की बरामदगी भी हुई. इससे पहले 1997 में उन्होंने टेट्रासाइक्लिन की चोरी की सूचना दी थी. इसका आरोपित गिरफ्तार हुआ था, लेकिन मुख्य सुरक्षा अधिकारी ने शिंदे से उनके व्यवहार के बारे में जवाब मांगा था. बाद में शिंदे को मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़ा था.

शिंदे कहते हैं, ‘मुझे सुरक्षा देने के बजाय बीपीटी ने मुझे निलंबित कर दिया और मेरा वेतन काट लिया.’ ड्यूटी से गायब रहने को लेकर उनके खिलाफ विभाग में अनेक आरोपपत्र दायर किए गए. अब वे ड्यूटी से गायब रहने और अनुशासनहीनता के आरोप में निलंबित चल रहे हैं. शिंदे के पास इसके सबूत हैं कि जिन दिनों वे ड्यूटी पर नहीं आए थे, उन दिनों उनकी सीबीआई और कस्टम के सामने गोपनीय मामलों में पेशी थी.

केंद्रीय सर्तकता आयोग को भेजी गई शिंदे की शिकायतों पर वर्षों तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। पिछले साल अगस्त में शिंदे ने जहाजरानी मंत्रालय से शिकायत की. वे बताते हैं कि मंत्रालय ने शिकायत पोर्ट ट्रस्ट के चेयरमैन को भेजी और चेयरमैन ने इसे उसी मुख्य सुरक्षा अधिकारी के पास भेज दिया जिसके खिलाफ शिंदे ने शिकायत की थी. शिंदे कहते हैं, ‘मैं महाभारत के अभिमन्यु की तरह अकेला पड़ गया हूं. मेरा परिवार सड़क पर है. नई नौकरी मिलने के बाद मैं अपनी तनख्वाह लूंगा और चुपचाप घर चला जाऊंगा.’


Tuesday, February 09, 2010

श्री विभूति नारायण राय, कुलपति महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के नाम एक पत्र
दिल्ली 9 फरवरी 2010

प्रिय विभूतिजी

अभिवादन !
उम्मीद है, स्वस्थ होंगे।

लम्बे समय से इस उधेड़बुन में था कि चन्द बातें आप तक किस तरह सम्प्रेषित करूं ? व्यक्तिगत मुलाकात सम्भव नहीं दिख रही थी सोचा पत्रा के जरिए ही अपनी बात लिख दूं। और यह एक ऐसा पत्रा हो जो सिर्फ हमारे आप के बीच न रहे बल्कि जिसे बाकी लोग भी पढ़ सकें, जान सके। इसकी वजह यही है कि पत्रा में जिन सरोकारों को मैं रखना चाहता हूं उनका ताल्लुक हमारे आपसी सम्बन्धों से जुड़े किसी मसले से नहीं है।
आप को याद होगा कि महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के कुलपति के तौर पर आप की नियुक्ति होने पर मेरे बधाई सन्देश का आपने उसी आत्मीय अन्दाज़ में जवाब दिया था। उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश की पुलिस द्वारा एक मानवाधिकार कार्यकर्ता की अनुचित गिरतारी के मसले को जब मैंने आप के साथ सांझा किया तब आपने अपने स्तर पर उस मामले की खोजख़बर लेने की कोशिश की थी। हमारे आपसी सम्बन्धों की इसी सांर्द्रता का नतीजा था कि आप के सम्पादन के अन्तर्गत साम्प्रदायिकता के ज्वलंत मसले पर केन्द्रित एक किताब में भी अपने आलेख को भेजना मैंने जरूरी समझा। इतनाही नहीं कुछ माह पहले जब मुझे बात रखने के लिए आप के विश्वविद्यालय का निमंत्राण मिला तब मैंने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया।
यह अलग बात है कि वर्धा की अपनी दो दिनी यात्रा में मेरी आप से मुलाक़ात सम्भव नहीं हो सकी। सम्भवतः आप प्रशासनिक कामों में अत्यधिक व्यस्त थे। आज लगता है कि अगर मुलाक़ात हो पाती तो मैं उन संकेतों को आप के साथ शेअर करता -जो विश्वविद्यालय समुदाय के तमाम सदस्यों से औपचारिक एवम अनौपचारिक चर्चा के दौरान मुझे मिल रहे थे - और फिर इस किस्म के पत्रा की आवश्यकता निश्चित ही नहीं पड़ती।
मैं यह जानकर आश्चर्यचकित था कि विश्वविद्यालय में अपने पदभार ग्रहण करने के बाद अध्यापकों एवम विद्यार्थियों की किसी सभा में आप ने छात्रों के छात्रासंघ बनाने के मसले के प्रति अपनी असहमति जाहिर की थी और यह साफ कर दिया था कि आप इसकी अनुमति नहीं देगे। यह बात भी मेरे आकलन से परे थी कि सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबके से आनेवाले एक छात्रा - सन्तोष बघेल - को विभाग में सीट की उपलब्धता के बावजूद शोध में प्रवेश लेने के लिए भी आन्दोलन का सहारा लेना पड़ा था और अन्ततः प्रशासन ने उसे प्रवेश दे दिया था। विश्वविद्यालय की आयोजित एक गोष्ठी में जिसमें मुझे बीज वक्तव्य देना था, उसकी सदारत कर रहे महानुभाव की ‘लेखकीय प्रतिभा’ के बारे में भी लोगों ने मुझे सूचना दी, जिसका लुब्बेलुआब यही था कि अपने विभाग के पाठयक्रम के लिए कई जरूरी किताबों के ‘रचयिता’ उपरोक्त सज्जन पर वाड्मयचैर्य अर्थात प्लेगिएरिजम के आरोप लगे हैं। कुछ चैनलों ने भी उनके इस ‘हुनर’ पर स्टोरी दिखायी थी।
बहरहाल, विगत तीन माह के कालखण्ड में पीड़ित छात्रों द्वारा प्रसारित सूचनाओं के माध्यम से तथा राष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से में विश्वविद्यालय के बारे में प्रकाशित रिपोर्टों से कई सारी बातें सार्वजनिक हो चुकी हैं। अनुसूचित जाति-जनजाति से सम्बधित छात्रों के साथ कथित तौर पर जारी भेदभाव एवम उत्पीड़न सम्बन्धी ख़बरें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। 6 दिसम्बर 2009 को डा अम्बेडकर परिनिर्वाण दिवस पर आयोजित रैली में शामिल दलित प्रोफेसर लेल्ला कारूण्यकारा को मिले कारण बताओ नोटिस पर टाईम्स आफ इण्डिया भी लिख चुका है। उन तमाम बातों को मैं यहां दोहराना नहीं चाहता।
जनवरी माह की शुरूआत में मुझे यह भी पता चला कि हिन्दी जगत में प्रतिबद्ध पत्राकारिता के एक अहम हस्ताक्षर श्री अनिल चमडिया - जिन्हें आप के विश्वविद्यालय में स्थायी प्रोफेसर के तौर पर कुछ माह पहले ही नियुक्त किया गया था - को अपने पद से हटाने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन आमादा है। फिर चन्द दिनों के बाद यहभी सूचना सार्वजनिक हुई कि विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी परिषद की आकस्मिक बैठक करके उन्हें पद से मुक्त करने का फैसला लिया गया और उन्हें जो पत्रा थमा दिया गया उसमें उनकी नियुक्ति को ‘कैन्सिल’ करने की घोषणा की गयी।
मैं समझता हूं कि विश्वविद्यालय स्तर पर की जाने वाली नियुक्तियां बच्चों की गुड्डी-गुड्डा का खेल नहीं होता कि जब चाहे हम उसे समेट लें। निश्चित तौर पर उसके पहले पर्याप्त छानबीन की जाती होगी, मापदण्ड निर्धारित होते होंगे, योग्यता को परखा जाता होगा। यह बात समझ से परे है कि कुछ माह पहले आप ने जिस व्यक्ति को प्रोफेसर जैसे अहम पद पर नियुक्त किया, उन्हें सबसे सुयोग्य प्रत्याशी माना, वह रातोंरात अयोग्य घोषित किया गया और उन्हें अपना पक्ष रखने का मौका तक नहीं दिया गया ?
कानून की सामान्य जानकारी रखनेवाला व्यक्ति भी बता सकता है कि विश्वविद्यालय प्रशासन का यह कदम प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के खिलाफ है। और ऐसा मामला नज़ीर बना तो किसी भी व्यक्ति के स्थायी रोजगार की संकल्पना भी हवा हो जाएगी क्योंकि किसी भी दिन उपरोक्त व्यक्ति का नियोक्ता उसे पत्रा थमा देगा कि उसकी नियुक्ति -कैन्सिल’।
यह जानी हुई बात है कि हिन्दी प्रदेश में ही नहीं बल्कि शेष हिन्दोस्तां में लोगों के बीच आप की शोहरत एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की रही है जिसने अपने आप को जोखिम में डाल कर भी साम्प्रदायिकता जैसे ज्वलंत मसले पर संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करने की कोशिश की। ‘शहर में कर्यू’ जैसे उपन्यासों के माध्यम से या ‘वर्तमान साहित्य’ जैसी पत्रिका की नींव डालने के आप की कोशिशों से भी लोग भलीभाति वाकीफ हैं। सम्भवतः यही वजह है कि कई सारे लोग जो कुलपति के तौर पर आप की कार्यप्रणाली से खिन्न हैं, वे मौन ओढ़े हुए हैं।
इसे इत्तेफा़क ही समझें कि महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय अपने स्थापना के समय से ही विवादों के घेरे में रहा है। चाहे जनाब अशोक वाजपेयी का कुलपति का दौर रहा हों या उसके बाद पदासीन हुए जनाब गोपीनाथन का कालखण्ड रहा हो, विवादों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा है। मेरी दिली ख्वाहिश है कि साड़े तीन साल बाद जब आप पदभार से मुक्त हों तो आप का भी नाम इस फेहरिस्त में न जुड़ें।
मैं पुरयकीं हूं कि आप मेरी इन चिन्ताओं पर गौर करेंगे और उचित कदम उठाएंगे।

- आपका

सुभाष गाताडे

Thursday, February 04, 2010

प्रेस क्लब में नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों की नो एंट्री

अजय प्रकाश

राजनीतिक व्यवस्था में सर्वाधिक लोकतांत्रिक मूल्यों की पैरोकार मीडिया में यह पहली घटना है जब रायपुर प्रेस क्लब ने नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों को क्लब में कार्यक्रम न करने देने का सर्वसम्मति से फैसला किया है। क्लब ने यह प्रतिबंध समान रूप से वैसे वकीलों पर भी लागू किया है जो क्लब समिति की निगाह में नक्सली समर्थक हैं।
नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान शुरू करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार के पास ऐसे कई रिकार्ड हैं जो अलोकतांत्रिक कानूनों को लागू करने में उसे पहला स्थान देते हैं। लेकिन यह पहली बार है जब राज्य में प्रेस प्रतिनिधियों की एक संस्था जो कि गैर सरकारी है, वह सरकारी भाषा का वैसा ही इस्तेमाल कर रही है जैसा की सरकार पिछले कई वर्षों में लगातार करती रही है।
दंतेवाड़ा में वनवासी चेतना आश्रम में पांच जनवरी को हैदराबाद और मुंबई से आये चार लोगों और स्थानीय पत्रकारों के बीच हुई मारपीट के बाद प्रेस क्लब का यह फरमान आया। बाहर से आये चार लोगों में फिल्म निर्माता निशता जैन, लेखक-पत्रकार सत्येन बर्दलोइ, कानून के छात्र सुरेश कुमार और पत्रकार प्रियंका बोरपुजारी शामिल हैं, के खिलाफ स्थानीय पत्रकारों ने मारपीट और कैमरा छीन लिये जाने का मुकदमा स्थानीय थाने में दर्ज कराया है।

इस मामले में प्रियंका बोरपुजारी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि ‘चूंकि हिमांशु कुमार आश्रम में नहीं थे और स्थितियां बहुत संदेहास्पद थीं, वैसे में आश्रम में आयीं चार आदिवासी महिलाओं को हम लोग अकेले छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। लेकिन पुलिस-एसपीओ के तीस जवान जो कई घंटों से आश्रम को घेरे हुए थे, उन्हें ले जाना चाहते थे। इसको लेकर हम लोगों और उनमें कई बार तु-तु, मैं-मैं भी हुई। शाम ढलने से पहले कुछ लोग हम लोगों का फोटो खींचने लगे, वीडियो बनाने लगे। हमने विरोध किया, उनसे उनकी पहचान पूछी। फिर क्या था, वह हम लोगों से भीड़ गये और लाख जूझने के बावजूद आखिरकार मेरे हाथ से वीडियो कैमरा छीन लिया और सत्येन बर्दलोइ और सुरेश कुमार को पीटा। लेकिन हम लोग जब इस मामले में थाने गये तो पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने से इनकार कर दिया। जाहिर तौर पर मीडियाकर्मियों ने जो हमारे साथ सुलूक किया और स्थानीय मीडिया को लेकर हमारे जो अनुभव रहे उस आधार पर हमने उन्हें बिकाऊ कहा।’
इसके बाद प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने 17 जनवरी को क्लब प्रतिनिधियों की आपात बैठक में कहा कि ‘दंतेवाड़ा में स्थानीय मीडिया को बिकाऊ कहने वाले कथित बुद्धिजीवियों के खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही हो, नहीं तो हमारे विरोध का तरीका बदल जायेगा। साथ ही ऐसे लोगों और एनजीओ को प्रेस क्लब में किसी भी तरह के कार्यक्रम करने की अनुमति न दी जाये। इसी तरह नक्सलवाद को जाने-समझे बिना मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले अधिवक्ता के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जायेगी।’ बाद में इस प्रस्ताव का प्रेस क्लब के सदस्यों ने समर्थन दिया। छत्तीसगढ़ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष नारायण शर्मा, धनवेंद्र जायसवाल, कौशल स्वर्णबेर ने भी इस मामले में ऐसे बुद्धिजीवियों के बयान की निंदा की और छत्तीसगढ़ आगमन पर कड़े विरोध की चेतावनी दी।
चेतावनी से आगे प्रेस क्लब अध्यक्ष ने इस बाबत और क्या कहा, जानने के लिए रायपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक ''हरिभूमि'' की कटिंग को यहां लगाया जा रहा है जिसे आप देख सकते हैं।

इस बारे में जन वेबसाइट सीजीनेट के माडरेटर और पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी से बातचीत हुई तो उनका कहना था, ‘प्रेस क्लब के पास ऐसा कौन सा पैमाना है जिससे किसी के नक्सल समर्थक होने को तौला जाना है। आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ बोलने वाला हर आदमी सरकार की निगाह में माओवादी है और चुप रहने वाला देशभक्त।’ कुछ इसी तरह की बात सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण भी कहते हैं, जिनके खिलाफ प्रेस क्लब ने टिप्पणी की है कि 'ऐसे वकीलों पर भी कानूनी कार्यवाही की जायेगी।'
पिछले दिनों रायपुर यात्रा के दौरान प्रशांत भूषण ने एक अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि ‘प्रदेश के डीजीपी विश्वरंजन राज्य में बढ़ती हिंसा और मानवाधिकारों के हनन के लिए व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार हैं। अगर हालात यूं ही बदतर रहे तो कभी वह आदिवासियों के रिश्तेदारों या माओवादियों द्वारा मार दिये जायेंगे, नहीं तो जेल जायेंगे।’ रायपुर प्रेस क्लब के यह कहने पर कि वह प्रशांत भूषण जैसे वकीलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करेगा और मंच मुहैया नहीं करायेगा, के जवाब में प्रशांत भूषण ने कहा ‘यह गैर संवैधानिक और मूल अधिकारों का हनन है। प्रेस क्लब से पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार माओवादी समर्थकों को गिनने में सक्षम नहीं है, जो प्रेस क्लब यह काम अपने हाथों में ले रहा है।’ इस बारे में प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर कहते हैं- ‘प्रेस ने गलतबयानी की है।’ जबकि ''हरिभूमि'' में छपी खबर की तफ्शीश करने पर समाचार पत्र के रायपुर संपादक से पता चला कि ‘यह खबर सभी दैनिकों में छपी है, वह अब मुकर जायें तो बात दीगर है।’
सवाल यह है कि अगर मीडिया को कोई दलाल कहता है तो क्या उसे प्रेस क्लब में आने से रोक देना उचित है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग करने वाले मीडिया के जनतांत्रिक संस्थाओं के रहनुमा ही ऐसी ऊटपटांग बातें करेंगे तो सरकार के बाकी धड़ों से हम किस नैतिकता के बल पर पारदर्शी होने की मांग करेंगे? हाल-फिलहाल की बात करें तो बिकते मीडिया को लेकर सर्वाधिक चिंता मीडियाकर्मियों की ही रही है। हमारे बीच नहीं रहे पत्रकार प्रभाष जोशी इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं, जिन्होंने जीवन के अंतिम समय तक मीडिया की दलाली पर तीखी टिप्पणी की। उन्हीं के द्वारा उठायी गयी आवाज का असर है कि एडिटर्स गिल्ड में इस मसले पर गंभीरता से विचार करने का सिलसिला शुरू हुआ है।
प्रेस क्लब के इस निर्णय पर अध्यक्ष अनिल पुसदकर से बातचीत-

एनजीओ, बुद्धिजीवियों और वकीलों के वह कौन से लक्षण हैं जिसके आधार पर आप प्रेस क्लब उनको मंच के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने देंगे?

हमने ऐसा नहीं कहा। बाहर से आकर जो लोग सच्चाई जाने बगैर छत्तीसगढ़ की मीडिया को बिकाऊ और दलाल कह रहे हैं उन्हें प्रेस क्लब का मंच के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने दिया जायेगा। कुछ ही दिन पहले संदीप पाण्डेय और मेधा पाटकर क्लब में कार्यक्रम करके गये हैं लेकिन हमने उन्हें नहीं रोका। जबकि प्रेस क्लब के बाहर लोग उनके खिलाफ धरना दे रहे थे।

लेकिन आपने ये कैसे तय किया कि मेधा पाटकर और संदीप पाण्डेय नक्सली बुद्धिजीवी हैं?

आप हमारी बात नहीं समझ रहे। मेरा कहना है कि अगर ऐसे बुद्धिजीवियों को आने से रोकने का हमारा निर्णय होता तो उन्हें हम क्यों आने देते। प्रेस क्लब सबका सम्मान करता है।

किस वकील पर कानूनी कार्यवाही की बात आपने की है?

सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को ही लीजिए। वे पेशे से वकील हैं लेकिन जिस तरह वह यहां के बारे में बोलकर गये, क्या ठीक था।

प्रशांत भूषण ने प्रेस क्लब के बारे में कुछ कहा क्या?
छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन के बारे में की गयी प्रशांत भूषण की टिप्पणी अपमानजनक थी। हम राज्य के लोग हैं और राज्य या यहां के किसी अधिकारी के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कैसे सहन कर सकते हैं।

रायपुर के दैनिकों में जो आपके हवाले से इस बारे में छपा है वो क्या है?
हमने वैसा नहीं कहा, जैसा उन्होंने छापा।

प्रेस ने आपको लेकर जो गलतबयानी की है इस बारे में क्लब ने कोई शिकायत दर्ज की है?
कैसे दर्ज करायें, अभी बीमार हैं।

स्थानीय मीडिया को कोई दलाल या बिकाऊ बोलेगा तो उसे क्लब को मंच नहीं बनाने देंगे, ऐसा क्यों?
जैसे दंतेवाड़ा की घटना है तो वहां के स्थानीय मीडिया को कोई कुछ कहे तो बात समझ में आती है, लेकिन कोई पूरे छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल बोले तो कोई पत्रकार कैसे सहन कर सकता है? दूसरा कि जो लोग बाहर से आये थे उन्होंने स्थानीय मीडियाकर्मियों से मारपीट की और कैमरा छीन लिया।

लेकिन पता तो यह चला है कि जब मेधा पाटकर और संदीप पाण्डेय आये थे तब उन लोगों का कैमरा पुलिस ने वापस किया?
इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।

आपको अपने बयान पर खेद है?
हमने जब कहा ही नहीं तो खेद किस बात का। यह तो मीडिया की गलतबयानी है, जिसका मैं जवाब दे रहा हूं।

पाठशाला

बड़े सपनों की पाठशाला का नन्हा हेडमास्टर

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16 साल के बाबर अली का स्कूल बताता है कि बड़े काम बड़ी उम्र के मोहताज नहीं होते. सम्राट चक्रबर्ती की रिपोर्ट

स्कूल के सभी 9 शिक्षक हाईस्कूल के छात्र हैं. इनमें देबारिता सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं. दरअसल, यहां का हर शिक्षक इस शिक्षा आंदोलन की अगुवाई कर रहा है और गहराई से इसका महत्व जानता है

प. बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में स्थित बेल्डांगा रेलवे क्रॉसिंग के आस-पास शायद ही ऐसा कुछ हो जो आपको खास लगे. लेकिन कोलकाता से हमारी पांच घंटे की बस यात्रा की मंजिल यहीं थी. मार्क्सवादी सपने दिखानेवाले और शादीशुदा दंपत्तियों की निजी समस्याओं के समाधान का दावा करते पोस्टरों से पटी पड़ी कंक्रीट की एक जीर्ण-शीर्ण इमारत. इसी इमारत के भीतर सीलन भरा एक छोटा-सा कमरा है जहां डेस्क के पीछे एक बेहद खास शख्स बैठता है और जिसका नाम ब्रिटेन की महारानी भी जानती हैं. हम भी इसी से मिलने आए हैं. दुबले-पतले और कुछ परेशान से दिख रहे इस 16 साल के लड़के का नाम है-बाबर अली. दुनिया में सबसे कम उम्र का स्कूल हेडमास्टर.

स्कूल के इस ऑफिस के पीछे ही जो घूरे का ढेर है उसके बगल में बाबर का घर है. यहीं अहाते में आमने-सामने मुंह करके आयताकार घेरों में बो बैठे हुए हैं. खुले आसमान के नीचे बैठे इन बच्चों में से कुछ अपनी किताबों में आंखें गड़ाए हैं तो कुछ इधर-उधर ताक रहे हैं. इन्हीं बच्चों के बीच में खाकी पैंट पहने खड़े हैं हेडमास्टर साहब जो लगातार जोर-जोर से बच्चों को निर्देश दे रहे हैं. हेडमास्टर की बात सारे बच्चों के मतलब की नहीं है इसलिए कुछ ही दूर टेढ़ी-मेढ़ी लाइनों में बैठे पहली कक्षा के बच्चों को आप हंसी-ठिठोली करते और धूल में खेलते हुए देख सकते हैं.

यह है बाबर अली का स्कूल-आनंद शिक्षा निकेतन. यदि आप यह जानना चाहते हैं कि भारत की इस नई लेकिन पिछड़ी पौध में शिक्षा की कितनी भूख है, तो आपका इस स्कूल में स्वागत है. यह स्कूल उन 800 बच्चों की पढ़ने-लिखने में मदद कर रहा है जो औपचारिक शिक्षा तंत्र से छिटक गए हैं. यहां बच्चे कई किलोमीटर दूर से पैदल चलकर सिर्फ इसलिए आते हैं ताकि ब्लैकबोर्ड पर चाक से बने आड़े-तिरछे निशानों को समझकर समझदार बन सकें. बाबर अली का यह आनंद शिक्षा निकेतन स्कूल खेल-खेल में बन गया था. जैसा कि वह बताता है, ‘हम स्कूल-स्कूल खेला करते थे. मेरे दोस्त कभी स्कूल नहीं गए थे. वे छात्र बनते थे और मैं हेडमास्टर. खेल-खेल में वे अंकगणित सीख गए.’ 2002 में बाबर ने इस खेल को कुछ गंभीरता से लिया और आठ विद्यार्थियों के साथ स्कूल शुरू कर दिया.

लेकिन सिर्फ विद्यार्थियों को जुटाने से स्कूल नहीं चलनेवाला था. पेन, कॉपी, पेंसिल की भी जरूरत थी. इसके लिए पहला निवेश किया बाबर के पिता नसीरुद्दीन शेख ने. कई मौकों पर नसीरुद्दीन अपने बेटे को 50 रुपए देते थे ताकि वह बच्चों के लिए चटाई, पेंसिल और कॉपियां खरीद सके. लेकिन बाद में जैसे-जैसे इस नन्हे हेडमास्टर और उसके स्कूल की खबर फैलती गई लोग मदद करने के लिए आगे आते गए. मदद करनेवालों में बाबर के स्कूल शिक्षकों, स्थानीय रामकृष्ण मिशन के संन्यासियों, आईएएस अधिकारियों से लेकर स्थानीय पुलिसकर्मी भी शामिल हो गए. बाबर ने अपने स्कूल में जब मध्याह्न भोजन की शुरुआत की तो पहले चावल उसके पिता के खेत से ही आया लेकिन अब स्थानीय प्रशासन में स्थित दोस्तों की मदद से अनाज सरकारी कोटे से आता है.

‘मैं घर पर बेटी की होमवर्क में मदद नहीं कर पाती थी, इसलिए मैंने फैसला किया कि अब मैं भी पढ़ूंगी.’

बाबर, प. बंगाल के गंगापुर गांव के भाप्टा इलाके में अपने तीन भाई-बहनों और माता-पिता के साथ रहता है. ईंटों से बने उसके इस टूटे-फूटे छोटे-से घर का आकार शहरी इलाकों के किचन के बराबर होगा. जूट बेचने का व्यवसाय करनेवाले बाबर के पिता नसीर खुद दूसरी कक्षा से आगे नहीं पढ़ पाए मगर उनका मानना है इनसान का सच्चा धर्म शिक्षा है. इस नन्हे हेडमास्टर का हर दिन सुबह सात बजे शुरू होता है जब वह पांच किमी पैदल चलकर बेल्डांगा के कासिम बाजार स्थित राज गोविंद सुंदरी विद्यापीठ में जाता है. यहां बाबर बारहवीं कक्षा का छात्र है. दोपहर एक बजे स्कूल खत्म होते ही वह अपनी दूसरी भूमिका के लिए तैयार हो जाता है. तब तक बाबर के छात्र घरों, खेतों और भैंसों के काम से निपटकर टुलु मौसी की घंटी बजने से पहले स्कूल जाने को तैयार रहते हैं. सफेद साड़ी पहननेवाली और स्कूल में एक हाथ में छड़ी रखकर घूमनेवालीं टुलु रानी हाजरा मछली बेचने का काम करती हैं और दोपहर के वक्त वे इस शिक्षा आंदोलन की सक्रिय सदस्य बन जाती हैं. दिलचस्प है कि टुलु को पढ़ना-लिखना नहीं आता. वे सुबह घूम-घूम कर मछली बेचने के दौरान उन लोगों से मिलती हैं, जिन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया है. अपने स्कूल के लिए नए छात्र जोड़ना भी उनका काम है. अब तक वे ऐसे 80 छात्रों को स्कूल की राह दिखा चुकी हैं.

स्कूल में छोटे बच्चों की तादाद काफी ज्यादा है, शायद इसलिए क्योंकि इन्हें स्कूल और शिक्षा से जोड़ना आसान काम होता है. यहां पहली और दूसरी कक्षा में फिलहाल 200 छात्र हैं, लेकिन आठवीं में सिर्फ 20. आठवीं के इन छात्रों को 10 विषय पढ़ाए जाते हैं. बड़ी कक्षा के इन छात्रों को बाबर और देबारिता भट्टाचार्य पढ़ाते हैं. भट्टाचार्य यहीं के एक और स्वयंसेवक हैं जो बहरामपुर कॉलेज में पढ़ते हैं. यह स्कूल सरकारी मान्यता के लिए जरूरी मानकों से काफी दूर है, लेकिन यहां के छात्रों को पं बंगाल बोर्ड का पाठ्यक्रम ही पढ़ाया जाता है. पहली से पांचवीं तक पाठ्य पुस्तकें यहां मुफ्त मिलती हैं लेकिन बाकी व्यवस्थाओं के लिए पैसा जुटाया जाता है. हर दिन आपको इस स्कूल में कम से कम 400 विद्यार्थी मिल ही जाएंगे. स्कूल सप्ताह में दोपहर 3 बजे से शाम 7 बजे तक चलता है, और इतवार को सुबह 11 बजे से 4 बजे तक. यहां सालाना खेल दिवस और सांस्कृतिक दिवस का भी आयोजन होता है.

स्कूल के सभी 9 शिक्षक हाईस्कूल के छात्र हैं. इनमें देबारिता सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं. दरअसल, यहां का हर शिक्षक इस शिक्षा आंदोलन की अगुवाई कर रहा है और गहराई से इसका महत्व जानता है. दसवीं में पढ़नेवाले इम्तियाज शेख कहते हैं, ‘शिक्षा अंधियारा दूर करती है. यहां जिंदगी बेहतर बनाने का यही रास्ता है. मैं इसीलिए यहां पढ़ाता हूं.’ लेकिन क्या इन शिक्षकों की कम उम्र छात्रों को संभालने में आड़े नहीं आती? इस पर बाबर कहते हैं, ‘हमारे बीच उम्र का कम फासला इस हिसाब से फायदेमंद है कि हम छात्रों के साथ दोस्तों की तरह रह सकते हैं. मेरे स्कूल में छड़ी कोने में पड़ी रहती है.’

खेल-खेल में शुरू हुए इस स्कूल का चलना शुरू में खेल की तरह आसान नहीं था. बड़े-बुजुर्गो ने इस बारे में कई सवाल-जवाब किए थे; उन लोगों को पढ़ाने का क्या मतलब जिन्हें दो वक्त का खाना नसीब नहीं हो पाता? लड़कियां पढ़-लिख गईं तो उनकी शादी कैसे होगी? लेकिन बाबर के पिता, जो मानते हैं कि इस दुनिया में निरक्षर होना सबसे शर्मिदगी की बात है,ने न सिर्फ इन सवालों को हवा में उड़ा दिया, बल्कि अपनी बेटी और नौंवीं कक्षा की छात्रा अमीना को स्कूल भेजकर तय किया कि लड़कियों की पढ़ाई को लेकर लोगों की हिचकिचाहट दूर की जाएगी. इस छोटी-सी कोशिश ने आस-पास के दो-तीन किमी के दायरे में सारे मजदूरों और छोटे किसानों की बेटियों को बाबर के स्कूल पहुंचा दिया. मुमताज बेगम इन्हीं महिलाओं में शामिल हैं जो न सिर्फ अपनी बेटी मोनियारा खातून को स्कूल में पढ़ने के लिए भेजती हैं बल्कि अब खुद भी इसी स्कूल में पढ़ने लगी हैं. हर दिन 20 किमी दूर से स्कूल आनेवाली मुमताज सातवीं कक्षा की छात्रा हैं और मोनियारा तीसरी की. मुमताज कहती हैं, ‘मैं घर पर बेटी की होमवर्क में मदद नहीं कर पाती थी, इसलिए मैंने फैसला किया कि अब मैं भी पढ़ूंगी.’

इस नन्हे हेडमास्टर के काम को न सिर्फ भारत में बल्कि विश्व स्तर पर भी सराहा गया है. हाल ही में बाबर को प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था टेक्नोलॉजी, एंटरटेनमेंट, डिजाइन (टेड) का फेलो चुना गया है. बाबर को संस्था ने विश्व स्तर पर एक महत्वपूर्ण सामाजिक-उद्यमी का दर्जा दिया है. पिछले साल फ्रांसीसी डॉक्युमेंटरी फिल्म निर्माताओं, दक्षिण कोरिया के पत्रकारों और बीबीसी सहित कई माध्यमों ने बाबर की कहानी को दुनिया भर में फैलाया था. दिलचस्प बात यह भी है कि बाबर ने फेसबुक नाम भी नहीं सुना लेकिन आपको इस सोशल नेटवर्किंग साइट पर उसके नाम से एक पृष्ठ मिल जाएगा. हालांकि उसने इंटरनेट पर चल रही इन खबरों के बारे में सुना जरूर है और वह कंप्यूटर के बारे में भी जानता है, लेकिन उसके बारे में क्या कहा जा रहा है यह उसे नहीं पता.

सपने देखनेवाले और उन्हें जमीन पर उतारनेवाले इस नन्हे हेडमास्टर का अगला सपना है- अपने स्कूल के लिए एक पक्की इमारत. और उसमें एक प्रयोगशाला, खेल का मैदान और हो सके तो एक ऑडिटोरियम भी. लेकिन ये फिलहाल बाद की बातें हैं.

यहां से लौटते हुए हम बार-बार सोच रहे थे कि क्या सच में बड़े कामों की बुनियाद सपनों में छिपी होती है? शायद हां, बाबर का स्कूल देखकर तो यही लगता है.

Sunday, January 17, 2010

भगत सिंह

जब मुक्ति का युग शुरु होगा : सलाम भगत सिंह


भगत सिंह. एक ऐसा नाम जिसे याद करने के लिए हमें उसकी जयंती और शहादत दिवस का सहारा नहीं लेना पड़ता. वह हमारी रगों में है. और हम उसे उसी तरह याद भी करते हैं. वह एक कामरेड था. अलग से उस पर कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है. बस एक बात, वह क्या बात थी भगत सिंह में कि उससे आज की राजसत्ता भी डरती है? एक बार सोचें.



उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा


भगत सिंह


मैं
इस संसार को मिथ्या नहीं मानता. मेरा देश, न परछाई है, न ही कोई मायाजाल. ये एक जीती-जागती हकीकत है. हसीन हकीकत और मैं इससे प्यार करता हूं. मेरे लिए इस धरती के अलावा न तो कोई और दुनिया है और न कोई स्वर्ग. यह सही है कि आज थोड़े से व्यक्तियों ने अपने स्वार्थ के लिए इस धरती को नर्क बना दिया है. लेकिन इसके साथ ही इसे काल्पनिक कह कर भागने से काम नहीं चलेगा. लुटेरों और दुनिया को गुलाम बनानेवालों को खत्म करके हमें इस पवित्र धरती पर वापिस स्वर्ग की स्थापना करनी होगी.

मैं पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान होकर भी आपका भगवान अन्याय, अत्याचार, भूख, गरीबी, लूट-पाट, ऊंच-नीच, गुलामी, हिंसा, महामारी और युद्ध का अंत क्यों नहीं करता? इन सबकों खत्म करने की ताकत होते हुए भी वह मनुष्यों को इन शापों से मुक्त नहीं करता, तो निश्चय ही उसे अच्छा भगवान नहीं कहा जा सकता और अगर उसमें इन सब बुराइयों को खत्म करने की शक्ति नहीं है, तो वह सर्व शक्तिमान नहीं है.
अगर वह ये सारे खेल अपनी लीला दिखाने के लिए कर रहा है, तो निश्चय ही यह कहना पड़ेगा कि वह बेसहारा व्यक्तियों को तड़पा कर सजा देनेवाली एक निर्दयी और क्रूर सत्ता है और जनता के हित से उसका जल्द-से-जल्द खत्म हो जाना ही बेहतर है.
मायावाद, किस्मतवाद, ईश्वरवाद आदि को मैं चंद लुटेरों द्वारा साधारण जनता को बहलाने-फुसलाने के लिए खोजी गयी जहरीली घुट्टी से ज्यादा कुछ नहीं समझता. दुनिया में अभी तक जितना भी खून-खराबा धर्म के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने किया है, उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. जो धर्म इनसान को इनसान से अलग करे, मोहब्बत की जगह एक-दूसरे के प्रति नफरत करना सिखाना, अंधविश्वास को उत्साहित करके लोगों के बौद्धिक विकास को रोक कर उनके दिमाग को विवेकहीन बनाना, वह कभी भी मेरा धर्म नहीं बन सकता.
हम भगवान, पुनर्जन्म, स्वर्ग, घमंड और भगवान द्वारा बनाये गये जीवन के हिसाब-किताब पर कोई विश्वास नहीं रखते. इन सब जीवन-मौत के बारे में हमें हमेशा पदार्थवादी ढंग से ही सोचना चाहिए. जिस दिन हमें भगवान के ऊपर विश्वास न करनेवाले बहुत सारे स्त्री-पुरुष मिल जायें जो केवल अपना जीवन मनुष्यता की सेवा और पीड़ित मनुष्य की भलाई के सिवाय और कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते. उसी दिन से मुक्ति के युग का शुभ आरंभ होगा. मैंने अराजकतावादी, कम्युनिज़्म के पितामह कार्ल मार्क्स, लेनिन, ट्राटस्की और अन्य के लिखे साहित्य को पढ़ा है. वो सारे नास्तिक थे. सन 1922 के आखिर तक मुझे इस बात पर विश्वास हो गया कि सर्वशक्तिमान परमात्मा की बात, जिसने ब्रह्मांड की संरचना की है, संचालन किया है, एक कोरी बकवास है.


हम भगत सिंह को हरियाणा के उस दलित नौजवान की तरह समझते हैं जो कहता है कि जैसे लड़ोगे, वैसे लड़ेंगे. दरअसल जो लोग संघर्ष के बारे में यह प्रश्न उठाते है कि वह हिंसात्मक होगा या अहिंसात्मक वे लोग सत्ता के साथ खड़े होते है. भगत सिंह का पूरा दर्शन कहीं भी और कभी भी नहीं कहता है कि हिंसा ही एक रास्ता है. उन्होंने बम भी फेंका और अनशन भी किये. बुनियादी परिवर्तन करनेवाले सूत्र भगत सिंह के दर्शन में मिलते हैं.

-अनिल चमड़िया

भारत-पाकिस्तान का साझा नायक भगत सिंह

हुसैन कच्छी

गत सिंह हीरो है, भारत-पाकिस्तान का इकलौता संयुक्त हीरो, एक प्रिंस चारमिंग अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ उपमहाद्वीप में साझा संग्राम का नायक निर्विवाद और उसके चाहनेवाले पेशावर से चात्गाम तक फैले हुए हैं. पाकिस्तान के पिछले सफर में मैंने ये बातें सुनीं, जब अलाप संस्था के निमंत्रण पर लाहौर में आयोजित तीन द्विवसीय इंटर फेथ रिलेशंस फैसटीबल में शिरकत के लिए गया था. अल हमरा ऑर्ट सेंटर में मुल्क भर से आमंत्रित अलग-अलग धर्मों के माननेवाले आये थे. इनसानदोस्ती और मुहब्बतों से डूबे लोगों का मेला था. सूफियान नगमों, गीतों की बारिश हो रही थी, सब एक -दूसरे की बांहों में बाहें डाले झूम रहे थे व गा रहे थे. इसी माहौल में मेरी मुलाकात गुरमीत सिंह से हो गयी. गुरमीत पाकिस्तान के नागरिक हैं.
उनका घर भगतसिंह के पैतृक गांव के पास ही है. लायलपुर (अब फैसलाबाद) के तहसील जड़ांवाला के चॉक न. 105 ग्राम बंगा में 28 सितंबर, 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ. हम आज भगत की जन्मशती मना रहे हैं. पिछले वर्ष गुरमीत ने भगत सिंह के जन्म दिवस पर जड़ांवाला में सांस्कृतिक कार्यक्रम और भगत सिंह मेमोरियल कबड्डी टूर्नामेंट का आयोजन कि या था, जिसमें प्रशासन के सहयोग से कई टीमों ने हिस्सा लिया और पंजाबी टीवी चैनल पर उसका प्रसारण भी किया गया था. गुरमीत सिंह कुछ वर्षों से भगत सिंह के जीवन और उनके आंदोलन पर काम कर रहे हैं. वे इस बात की कोशिश कर रहे हैं कि भगत सिंह का घर राष्ट्रीय स्मारक घोषित हो. लाहौर किला, जहां भगत सिंह को कैद रखा गया था और दरिया-ए-सतलुज के किनारे भगत सिंह की यादगार कायम की जाये. इसके लिए सरकार से उनकी वार्ता जारी है. उन्होंने बताया भारत सरकार की ओर से भी इस मुद्दे पर चर्चा की उन्हें सूचना है. चूंकि पाकिस्तान में भगत सिंह के किसी रिश्तेदार के होने की कोई खबर नहीं और उन्हें अमर शहीद पर अभी बहुत सूचनाएं एकत्रित करनी हैं, इसलिए वे भारत में भगत सिंह के रिश्तेदारों से मिलने का प्रोग्राम बना रहे हैं. अनेक रिश्तेदारों का अता-पता वह जमा कर रहे हैं.
पाकिस्तान में भगत सिंह के विषय पर गहरी रुचि का अनुभव हुआ, समय-समय पर अब अखबारों में उनकी गाथाएं छपती हैं. अहमद सलीम की दो किताबें भगत सिंह, जीवन के आदर्श 1973 और 1986 में छपी भगत सिंह देखने को मिली. इसके अलावा अजय घोष की पुस्तिका भगत सिंह और उसके साथी का उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है. प्रोफेसर नसरीन अंजुम भट्टी, अधिवक्ता आफताब जावेद, शिराज राज ने बताया कि भगत सिंह पर आधारित भारतीय फिल्में इस लगन और दिलचस्पी से देखी जाती हैं कि ये साड्डे (अपने) भगत सिंह की कहानी है. भगत साड्डा हीरो है, बहुत बड़ा और निर्विवाद हीरो, जिस पर कोई बहस नहीं और जिसकी कुर्बानी बेमिसाल है, पेशावर से चात्गाम तक भगत हर मां का बेटा है, सबका भाई है. हमें गर्व है कि भगत हमारी मिट्टी का सपूत है, वे कहते हैं कि आजादी के लिए उपमहाद्वीप के साझा संग्राम का वही एक मात्र लीडर है, जिसके लिए सरहद के दोनों तरफ एक से जज्बात हैं. अब खबर आयी कि भगत सिंह जन्मशती के मौके पर पाकिस्तान सरकार ने उनकी यादगार कायम करने का फैसला किया है, इसका चौतरफा स्वागत हुआ. अखबारों ने संपादकीय लिख कर इसकी सराहना की है. भाई गुरमीत से संपर्क बना हुआ है वे पूरे जोश खरोश से वहां आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में व्यस्त हैं, फुरसत पाते ही भारत आयेंगे, तो और जानकारी मिलेगी. भगत सिंह का त्याग बोल रहा है कि नफरतों के बीज बोनेवाले तो जा चुके हैं. अब साझा संस्कृति के वारिसों के दरम्यान गलतफहमी क्यों है? जो दिलों को जोड़ दें उस इंकलाब को जिंदाबाद किया जाये.
कच्छी जी का यह आलेख प्रभात खबर से साभार.

अछूतों की अजादी : धीरे-धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा

Posted by Reyaz-ul-haque on 6/03/2007 01:14:00 PM
देश में दलितों की दशा और आरक्षण पर बहस छि़ड़ी हुई है. ऐसे में हम भगत सिंह को याद कर सकते हैं, जिन्होंने देश में सबसे पहले एक शोषणमुक्त समाज बनाने के बारे में वैज्ञानिक तरीके से सोचा, तमाम संदर्भों को लेकर अध्ययन किया और एक नतीजे पर पहुंचे. यह उनका जन्मशती वर्ष भी है. कुछ हवाले पुराने भले हैं, मगर बाते समकालीन हैं.

भगत सिंह

हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश के नहीं हुए. यहां अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं. एक अहम सवाल अछूत समस्या है. समस्या यह है कि 30 करोड़ की जनसंख्यावाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा! उनके मंदिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुंआ अपवित्र हो जायेगा! ये सवाल बीसवीं सदी में किये जा रहे हैं, जिन्हें सुनते ही शर्म आती है.
हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं, जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलानेवाला यूरोप कई सदियों से इनकलाब की आवाज उठा रहा है. उन्होंने अमेरिका और फ्रांस की क्रांतियों के दौरान ही समानता की घोषणा कर दी थी. आज रूस ने भी हर प्रकार के भेदभाव मिटा कर क्रांति के लिए कमर कसी हुई है. हम सदा ही आत्मा-परमात्मा के वजूद को लेकर चिंतित होने तथा इस जोरदार बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जायेगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं? हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता. अंगरेज़ी शासन हमें अंगरेज़ के समान नहीं समझता. लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है?
सिंध के एक मुसलिम सज्जन श्री नूर मुहम्मद ने, जो बंबई कौंसिल के सदस्य हैं, इस विषय पर 1926 में खूब कहा-

If the Hundu society refuses to allow other human beings, fellow creatures so that to attend public school, and if.. the president of local board representing so many lakhs of people in this house refuses to allow his fellows and brothers the elementary human right of having water to drink, what right have they to ask for more rights from the bureaucracy? Before we accuse people coming from other lands, we should see how we ourselves behave toward our own people.. How can we ask for greater political rights when we ourselves deny elementary rights of human beings.

वे कहते हैं कि जब तुम एक इनसान को पीने के लिए पानी देने से भी इनकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकार की मांग करो? जब तुम एक इनसान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो तो तुम अधिक राजनैतिक अधिकार मांगने के कैसे अधिकारी बन गये? बात बिल्कुल खरी है. लेकिन यह क्योंकि एक मुसलिम ने कही है इसलिए हिंदू कहेंगे कि देखो, वह उन अछूतों को मुसलमान बना कर अपने में शामिल करना चाहते हैं. जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इनसानों जैसा व्यवहार किया जायेगा. फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान, हिंदू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं व्यर्थ होगा. कितना स्पष्ट कथन है, लेकिन यह सुन कर सभी तिलमिला उठते हैं. इसी तरह की चिंता हिंदुओं को भी हुई. सनातनी पंडित भी कुछ-न-कुछ इस मसले पर सोचने लगे. बीच-बीच में बड़े 'युगांतरकारी` कहे जानेवाले भी शामिल हुए. पटना में हिंदू महासभा का सम्मेलन लाला लाजपतराय-जो कि अछूतों के बहुत पुराने समर्थक चले आ रहे हैं-की अध्यक्षता में हुआ, तो जोरदार बहस छिड़ी. अच्छी नोंक-झोंक हुई. समस्या यह थी कि अछूतों को यज्ञोपवीत धारण करने का हक है अथवा नहीं? तथा क्या उन्हें वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने का अधिकार है? बड़े-बड़े समाज-सुधारक तमतमा गये, लेकिन लालाजी ने सबको सहमत कर दिया तथा यह दो बातें स्वीकृत कर हिंदू धर्म की लाज रख ली. वरना जरा सोचो, कितनी शर्म की बात होती. कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है. हमारी रसोई में निस्संग फिरता है, लेकिन एक इनसान का हमसे स्पर्श हो जाये तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है. इस समय मालवीय जी-जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वंय को अशुद्ध समझते हैं! क्या खूब यह चाल है! सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के लिए मंदिर बना है लेकिन वहां अछूत जा घुसे तो वह मंदिर अपवित्र हो जाता है. भगवान रुष्ट हो जाता है! घर की जब यह स्थिति हो तो बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं? तब हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पायी जाती है. जो निम्नतम काम करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं उन्हें ही हम दुरदुराते हैं. पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इनसान को पास नहीं बिठा सकते! आज इस सवाल पर बहुत शोर हो रहा है. उन विचारों पर आजकल विशेष ध्यान दिया जा रहा है. देश में मुक्ति कामना जिस तरह बढ़ रही है, उसमें सांप्रदायिक भावना ने और कोई लाभ पहुंचाया हो अथवा नहीं लेकिन एक लाभ जरूर पहुंचाया है. अधिक अधिकारों की मांग के लिए अपनी-अपनी कौमों की संख्या बढ़ाने की चिंता सबको हुई. मुसलिमों ने जरा ज्यादा जोर दिया. उन्होंने अछूतों को मुसलमान बना कर अपने बराबर अधिकार देने शुरू कर दिये. इससे हिंदुओं के अहम को चोट पहुंची. स्पर्धा बढ़ी. फसाद भी हुए. धीरे-धीरे सिखों ने भी सोचा कि हम पीछे न रह जायें उन्होंने भी अमृत छकाना आरंभ कर दिया. हिंदू-सिखों के बीच अछूतों के जनेऊ उतारने या केश कटवाने के सवालों पर झगड़े हुए. अब तीनों कौमें अछूतों को अपनी-अपनी ओर खींच रही है. इसका बहुत शोर-शराबा है. उधर ईसाई चुपचाप उनका रुतबा बढ़ा रहे हैं. चलो, इस सारी हलचल से ही देश के दुर्भाग्य की लानत दूर हो रही है.
इधर जब अछूतों ने देखा कि उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं तथा उन्हें हर कोई अपनी-अपनी खुराक समझ रहा है तो वे अलग ही क्यों न संगठित हो जायें? इस विचार के अमल में अंगरेज़ी सरकार का कोई हाथ हो अथवा न हो लेकिन इतना अवश्य है कि इस प्रचार में सरकारी मशीनरी का काफी हाथ था. 'आदि धर्म मंडल` जैसे संगठन उस विचार के प्रचार का परिणाम हैं.
अब एक सवाल और उठता है कि इस समस्या का सही निदान क्या हो? इसका जबाब बड़ा अहम है. सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इनसान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य विभाजन से. अर्थात क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, इसलिए जीवन भर मैला ही साफ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक नहीं है, ये बातें फिजूल हैं. इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कह कर दुत्कार दिया. उनसे ये निम्नकोटि के कार्य करनेवाले लगे. साथ ही यह भी चिंता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्व जन्म के पापों का फल है. अब क्या हो सकता है? चुपचाप दिन गुजारो! इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लंबे समय तक के लिए शांत करा गये. लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया. मानव के भीतर की मानवीयता को समाप्त कर दिया. आत्मविश्वास एवं स्वावलंबन की भावनाओं को समाप्त कर दिया. बहुत दमन और अन्याय किया गया. आज उस सबके प्रायश्चित का वक्त है.
इसके साथ एक दूसरी गड़बड़ी हो गयी. लोगों के मन में आवश्यक कार्यों के प्रति घृणा पैदा हो गयी. हमने जुलाहे को भी दुत्कारा. आज कपड़ा बुननेवाले भी अछूत समझे जाते हैं. यू.पी. की तरफ कहार को भी अछूत समझा जाता है. इससे बड़ी गड़बड़ी पैदा हुई. ऐसे में विकास की प्रक्रिया में रुकावटें पैदा हो रही हैं. इन तबकों को अपने समक्ष रखते हुए हमें चाहिए कि हम न इन्हें अछूत कहें और न समझें. बस, समस्या हल हो जाती है. नौजवान भारत सभा तथा नौजवान कांग्रेस ने जो ढंग अपनाया है वह काफी अच्छा है. जिन्हें आज तक अछूत कहा जाता रहा उनसे अपने इन पापों के लिए क्षमा याचना करनी चाहिए तथा उन्हें अपने जैसा इनसान समझना, बिना अमृत छकाये, बिना कलमा पढ़ाये या शुद्धि किये उन्हें अपने में शामिल करके उनके हाथ से पानी पीना, यही उचित ढंग है. और आपस में खींचतान करना और व्यवहार में कोई भी हक न देना, कोई ठीक बात नहीं है. जब गांवों में मजदूर प्रचार शुरू हुआ उस समय किसानों को सरकारी आदमी यह बात समझा कर भड़काते थे कि देखो, यह भंगी-चमारों को सिर पर चढ़ा रहे हैं और तुम्हारा काम बंद करवायेंगे. बस किसान इतने में ही भड़क गये. उन्हें याद रहना चाहिए कि उनकी हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक कि वे इन गरीबों को नीच और कमीना कह कर अपनी जूती के नीचे दबाये रखना चाहते हैं. अक्सर कहा जाता है कि वह साफ नहीं रहते. इसका उत्तर साफ है-वे गरीब हैं. गरीबी का इलाज करो. ऊंचे-ऊंचे कुलों के गरीब लोग भी कोई कम गंदे नहीं रहते. गंदे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता, क्योंकि माताएं बच्चों का मैला साफ करने में मेहतर तथा अछूत तो नहीं हो जातीं. लेकिन यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता जितने समय तक कि अछूत कौमें अपने आपको संगठित न कर लें. हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना तथा मुसलिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की मांग करना बहुत आशाजनक संकेत हैं. या तो सांप्रदायिक भेद को झंझट ही खत्म करो, नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो. कौंसिलों और असेंबलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-कालेज, कुंए तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दिलायें. जबानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ायें. उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलायें. लेकिन जिस लेजिस्लेटिव में बाल विवाह के विरुद्ध पेश किये बिल तथ मजहब के बहाने हाय-तौबा मचायी जाती है, वहां वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं?
इसलिए हम मानते हैं कि उनके अपने जनप्रतिनिधि हों. वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगें. हम तो साफ कहते हैं कि उठो, अछूत कहलानेवाले असली जनसेवकों तथा भाइयों उठो! अपना इतिहास देखो. गुरु गोविंद सिंह की फौज की असली शक्ति तुम्ही थे! शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है. तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं. तुम जो नित्यप्रति सेवा करके जनता के सुखों में बढ़ोतरी करके और जिंदगी संभव बना कर यह बड़ा भारी अहसान कर रहे हो, उसे हम लोग नहीं समझते. लैंड एलियेशन एक्ट के अनुसार तुम धन एकत्र कर भी जमीन नहीं खरीद सकते. तुम पर इतना जुल्म हो रहा है कि मिस मेयो मनुष्यों से भी कहती हैं-उठो, अपनी शक्ति पहचानो. संगठनबद्ध हो जाओ. असल में स्वयं कोशिश किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा. (Those who would be free must themselves strike the blow) स्वतंत्रता के लिए स्वाधीनता चाहनेवालों को यत्न करना चाहिए. इनसान की धीरे-धीरे कुछ ऐसी आदतें हो गयी हैं कि वह अपने लिए तो अधिक अधिकार चाहता है, लेकिन जो उनके मातहत हैं उन्हें वह अपनी जूती के नीचे ही दबाये रखना चाहते हैं. कहावत है, 'लातों के भूत बातों से नहीं मानते`. अर्थात संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो. तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इनकार करने की जुर्रत न कर सकेगा. तुम दूसरों की खुराक मत बनो. दूसरों के मुंह की ओर न ताको. लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झांसे में मत फंसना. यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है. यही पूंजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है. इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना. उसकी चालों से बचना. तब सब कुछ ठीक हो जायेगा. तुम असली सर्वहारा हो.संगठनबद्ध हो जाओ. तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी. बस गुलामी की जंजीरें कट जायेंगी. उठो और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो. धीरे-धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा. सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो. तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोये हुए शेरो उठो और बगावत खड़ी कर दो.


फ़िल्में

बच्चों के लिए नहीं, बाज़ार के लिए बनती हैं फ़िल्में

फ़िल्म समीक्षक विनोद अनुपम बता रहे हैं कि भारत में बच्चों के लिए फ़िल्में क्यों नहीं बनायी जातीं.


ज बाल फिल्मों का स्वरूप बदल गया है. फिल्में अब कम बनने लगी हैं. इसके पीछे बहुत से कारण हैं, जिनकी वजह से बच्चे और उनकी फिल्में सिनेमा जगत से गायब होती जा रही हैं.
चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी जब बनी थी, तब उद्देश्य यह रखा गया था कि बच्चे जो देश के भविष्य होते हैं, उन्हें फिल्मों के माध्यम से आगे बढ़ाया जाये. इसमें उनके शैक्षिक उद्देश्य और नैतिकता को प्रमुखता दी गयी थी. लेकिन जिस उद्देश्य से चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी बनी, उस उद्देश्य से आज वह भटक गयी है. पहले यह सोसायटी नियमित रूप से एक साल में तीन-चार फिल्में बनाती थी, लेकिन आज इसमें काम कम और राजनीतिक गुटबाजी अधिक होने लगी है. कह सकते हैं कि पहले सरकार बच्चों के विकास को लेकर अधिक सक्रिय थी, लेकिन आज वह सक्रियता मंद पड़ गयी है.
इन बातों से ऐसा नहीं समझना चाहिए कि बाल फिल्में बननी बंद हो गयी हैं. वे अब सरकारी स्तर पर न बन कर व्यक्तिगत स्तर पर बन रही हैं. हाल ही में विशाल भारद्वाज ने बच्चों के लिए ब्लू अंब्रेला नामक बाल फिल्म बनायी है. लेकिन सरकारी और व्यक्तिगत फिल्म निर्माण में उद्देश्यों को लेकर अंतर आ जाता है. निश्चित रूप से व्यक्तिगत रूप से फिल्म बनेगी, तो उसका टारगेट बाजार ही होगा. बच्चों में कितना सामाजिक संदेश जाता है, इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो जाता है कि इस बाल फिल्म ने मार्केट में कितना बिजनेस किया.
जहां तक हॉलीवुड और बॉलीवुड की बात करें तो बाल फिल्मों के निर्माण के कॉन्सेप्ट अलग हो जाते हैं. हॉलीवुड की फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी ही जाती है बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रख कर. वहां चिल्ड्रेन साइकोलॉजी पर काफी होमवर्क किया जाता है, तब जाकर बाल फिल्म तैयार होती है. भारत में तो ऐसी फिल्में लगभग नहीं के बराबर हैं, जो बच्चों को अपील कर सकें. बॉलीवुड की फिल्मों में मुश्किल यह है कि यहां बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क बिलकुल नहीं किया जाता है. यहां जिस फिल्म में बच्चों को कास्ट कर लिया जाता है, उसे ही बाल फिल्मों की संज्ञा दे दी जाती है. जैसे अस्सी के दशक में एक फिल्म मासूम आयी थी, जिसे बाल फिल्म की श्रेणी में रखा गया. लेकिन मेरी नजर में वह फिल्म बड़ों के लिए थी.
आज बॉलीवुड की बाल फिल्मों में एनीमेशन फिल्मों ने अपना स्थान बना लिया है, इसके पीछे दो कारण हैं. पहला कारण है कि आज बच्चों का मूड बदल गया है. बच्चों में यह खासियत होती है कि उनकी मानसिकता बहुत चंचल होती है. वे बड़ों के समान धैर्यपूर्वक फिल्में नहीं देख सकते हैं. एनीमेशन फिल्मों में कट-टू-कट होता है और सब कुछ जल्दी-जल्दी घटित होता है. इसलिए बच्चे इसमें ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं. दूसरी बात यह है कि एनीमेशन फिल्में, जो बच्चों के लिए बन रही हैं, वे अधिकतर पौराणिक पटकथाओं पर आधारित होती हैं. जैसे बाल गणेश हो या हनुमान, ऐसी फिल्मों पर निर्माताओं को बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क नहीं करना पड़ता है और फिल्म आसानी से बन जाती है. सबसे बड़ी बात है कि बाल फिल्मों का निर्माण बच्चों को ध्यान में रख कर नहीं बाजार को ध्यान में रख कर किया जा रहा है.
आज बाल फिल्मों के अभाव में बच्चे बड़ों की फिल्में देख रहे हैं. जैसे अधिकतर बच्चों की मनपसंद फिल्म कृष या धूम है. इसलिए जरूरी है कि बच्चों के लिए बाल मनोविज्ञान पर और बच्चों को ही कास्ट करके फिल्में बनायी जायें. बच्चों के बदलते मूड को ध्यान में रखते हुए भारतीय सिनेमा जगत को बाल मनोविज्ञान पर होमवर्क करने की जरूरत है, जिसके लिए यह तैयार नहीं दिखता है

इरोम शर्मिला की कहानी

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‘यह उन सब मांओं के दूध का कर्ज चुका रही है’

इरोम शर्मिला असीम हिंसा का उत्तर असीम शांति से दे रही है. अगर उसकी कहानी हमें रुककर कुछ सोचने को मजबूर नहीं करती तो हम इतने पत्थरदिल हो चुके हैं कि हमें अब कोई चीज नहीं पिघला सकेगी. शोमा चौधरी की रिपोर्ट

कभी-कभी हमें अपने जिद्दी और अड़ियल वर्तमान को ठीक से जानने के लिए अतीत में लौटना पड़ता है. इसलिए पहले एक फ्लैशबैक.

वह कोई बड़ा राजनीतिक आंदोलन नहीं चला रही और अगर आप करिश्माई भाषणों और जोशीले नायकत्व की उम्मीद कर रहे हैं तो लेटी हुई यह शांत महिला आपको निराश ही करेगी

यह 2006 है. नवंबर में दिल्ली की एक आम-सी शाम. तभी एक रुक-रुककर आती धीमी आवाज आपकी चेतना को चीरती हुई चली जाती है. ‘मैं कैसे समझाऊं? यह सजा नहीं, मेरा कर्तव्य है.. अपने दर्द के कारण धीमी मगर फिर भी अपनी नैतिकता में डूबी हुई ऐसी जादुई आवाज और ऐसे शब्द, जिन्हें आप कभी नहीं भूल सकते. ‘मेरा कर्तव्य.’ आर्थिक प्रगति के उत्साह में गले तक डूबे भारत में ‘कर्तव्य’ का भला क्या मतलब होगा? आप कहीं दूर चले जाना चाहते हैं. आप व्यस्त हैं और उस आवाज में हिंसा का कोई संकेत भी नहीं है. लेकिन तभी एक चित्र बनने लगता है. अस्पताल के एक बिस्तर पर गोरे रंग की एक कमजोर औरत, बिखरे हुए काले बालोंवाला सिर, नाक में प्लास्टिक की एक ट्यूब, दुबले और साफ हाथ, दृढ़ और बादामी आंखें और रुक-रुक कर आती, कांपती आवाज, जो कर्तव्य की बात करती है.

उसी क्षण इरोम शर्मिला की पूरी कहानी रिसना शुरू होती है. आप किसी ऐतिहासिक इनसान के आस-पास हैं. ऐसा कोई, जिसका राजनीतिक विरोधों के इतिहास में पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं है. फिर भी आप उसे भूल गए हैं. आपके पास सैकड़ों टीवी चैनल और मीडिया का अपूर्व गौरवशाली दौर है, मगर फिर भी आप उसे भूल गए हैं. 2006 में इरोम शर्मिला ने पिछले छह साल से न ही कुछ खाया था और न ही पानी की एक बूंद तक पी थी. भारत सरकार उसकी नाक में एक ड्रिप लगाकर उसे जबर्दस्ती जीवित रख रही थी. छह साल से कोई ठोस पदार्थ उसके शरीर में नहीं गया था और पानी की एक भी बूंद ने उसके होठों को नहीं छुआ था. उसने बालों में कंघी करना तक बन्द कर रखा था. वह अपने दांतों को रुई से और होंठों को सूखी स्पिरिट से साफ करती थी, जिससे उसका उपवास न टूटे. उसका शरीर अंदर से खत्म होता जा रहा था. उसके मासिक चक्र बंद हो गए थे, परंतु उसका संकल्प नहीं टूटा था. जब भी उसका बस चलता था, वह नाक से ट्यूब निकाल फेंकती थी. वह कहती थी कि अपनी आवाज को ‘उचित और शांत ढंग’ से सुनाने के लिए यही उसका नैतिक कर्तव्य है.

फिर भी भारत सरकार और भारत के लोग उसके प्रति बेपरवाह थे. वह तीन साल पहले था. बीते साल 5 नवंबर को इरोम शर्मिला ने अपने इस अभूतपूर्व उपवास के दसवें साल में प्रवेश किया, जो मणिपुर और अधिकांश पूर्वोत्तर पर 1980 से थोपे गए अफ्स्पा (सशस्त्न बल विशेष अधिकार अधिनियम) के विरोध में था. सिर्फ इस संदेह के आधार पर कि कोई व्यक्ति अपराध करने वाला है या कर चुका है, यह एक्ट सेना को बलप्रयोग, गिरफ्तारी और गोली मारने तक की छूट देता है. यह एक्ट सेना के किसी भी व्यक्ति के विरु द्ध केंद्र सरकार की अनुमति के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया की अनुमति भी नहीं देता.

शब्दों में क्रूर दिखनेवाला यह कानून इरादों में और भी क्रूर है. आधिकारिक तौर पर इसके लागू किए जाने के बाद से सुरक्षा बलों ने मणिपुर में हजारों लोग मारे हैं. (2009 में ही सरकारी आंकड़ों में यह संख्या 265 है, जो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक 300 से ऊपर है, जिसका अर्थ है- प्रतिदिन एक या दो ग़ैर कानूनी हत्याएं) विद्रोही संगठनों पर लगाम कसने के बजाय इस एक्ट ने आम आदमी में उबलता हुआ आक्रोश ही पैदा किया है और उससे नए उग्रवादी पनपे हैं. 1980 में जब यह कानून लागू हुआ, मणिपुर में केवल 4 विद्रोही संगठन थे. आज उनकी संख्या 40 है और मणिपुर मौत की घाटी जैसा बन गया है, जहां बेतहाशा भ्रष्टाचार है और उसके दस्ताने के अंदर पुलिस, उग्रवादियों और राजनीतिज्ञों के हाथ एक साथ हैं और निर्दोष नागरिक उस दस्ताने की गिरफ्त में हैं.

डाक्टर आपको बताएंगे कि शर्मिला का उपवास एक चमत्कार है. उसकी स्थिति का अनुमान लगाना ही आपको डरा देता है. लेकिन शर्मिला कभी किसी शारीरिक कष्ट की बात स्वीकार नहीं करती

कुछ साल पहले एक सीडी सभ्य समाज के गलियारों तक पहुंची. इसमें सेना की अपमानजनक क्रूरता और जनता के रोष की फुटेज थीं. छोटे बच्चों, छात्रों, कामकाजी वर्ग की औरतों की तसवीरें थीं, जो सड़कों पर आ गए थे और आंसू गैस या गोलियों का निशाना बन रहे थे. ऐसी तसवीरें थीं, जिनमें आदमियों को नीचे जमीन पर लिटा दिया गया था और फौज उनके सिरों से बस कुछ इंच ऊपर गोलियां दाग रही थी. हर गुजरते दिन के साथ आते किस्से ग़ुस्सा बढ़ाते जा रहे थे. लड़के गायब हो रहे थे, औरतों के साथ बलात्कार किए जा रहे थे. मनुष्य की सबसे जरूरी चीज, उसके आत्मसम्मान को छील-छील कर उतारा जा रहा था.

युवा इरोम शर्मिला के लिए ये सब चीजें 2 नवंबर, 2000 को स्पष्ट हुईं. एक दिन पहले एक विद्रोही संगठन ने असम राइफल्स के एक दस्ते पर बम फेंका था, क्रोधित बटालियन ने मालोम बस स्टैंड पर दस बेकसूर लोगों को मार डाला. उन शवों की दिल दहला देनेवाली तसवीरें अगले दिन के स्थानीय अखबारों में छपीं, जिनमें एक 62 साल की औरत लिसेंगबम इबेतोमी और 18 साल की सिनम चंद्रमणि भी थी, जो 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार ले चुकी थी. असामान्य रूप से बेचैन 28 साल की शर्मिला ने 4 नवंबर को अपना सत्याग्रह शुरू किया.

तीन साल पहले की नवंबर की उस सर्द शाम में हॉस्पिटल के एक बर्फ से सफेद गलियारे में पसर कर बैठे हुए शर्मिला के 48 वर्षीय भाई सिंहजीत ने कुछ हंस कर कहा था, ‘हम यहां कैसे पहुंचे?’ उस उदास प्रश्न की अनुगूंज में ही शर्मिला और उनके अद्भुत सफर की कहानी छिपी थी. उस कहानी के बड़े हिस्से को अपने अंदर झांक कर जानने की जरूरत है. ऐसा तनाव, तीव्रता और लगभग असंभव कल्पना का काम इतनी आसानी से नहीं दिखता. यह इंफाल की एक सुदूर झोंपड़ी में शुरू हुआ. राजधानी और राज्य की सारी शक्तियां उनके विरुद्ध लामबंद हो गईं. अस्पताल के उसके छोटे-से कमरे में उसके साथ बंद नर्स थी और बाहर भाई था, जिसके पास कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं था और जो न हिंदी बोल पाता था, न अंग्रेजी. दरवाजे पर तैनात पुलिसवाले भी थे.

‘मेंघाओबी’ अर्थात गोरी लड़की, जिस नाम से मणिपुर के लोग उसे पुकारते हैं, इंफाल के पशु चिकित्सालय में काम करनेवाले एक अनपढ़ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की सबसे छोटी बेटी थी. वह हमेशा से अकेले रहना पसंद करती थी, क्लास में सबसे पीछे बैठती थी और अच्छी श्रोता थी. उससे बड़े आठ भाई-बहन और थे. जब उसका जन्म हुआ, उसकी 44 वर्षीया मां इरोम सखी का दूध सूख चुका था. जब शाम ढलती थी और मणिपुर अंधेरे में डूबने लगता था, शर्मिला रोना शुरू कर देती थी. उसके सामने से हटने के लिए मां को पास की किराने की दुकान पर जाना पड़ता था, ताकि सिंहजीत अपनी छोटी बहन को गोद में लेकर पड़ोस की किसी मां के पास दूध पिलाने ले जा सके. ‘इसकी इच्छाशक्ति हमेशा से असाधारण रही है. शायद इसीलिए वह सबसे अलग भी है,’ सिंहजीत कहते हैं, ‘शायद इस तरह यह उन सब मांओं के दूध का कर्ज चुका रही है.’ बगल में बैठे इस समझदार गंवई व्यक्ति की कहानी में एक तीखा-सा दर्द था- इस जंग को अपनी अदृश्य सांसें देता हुआ वफादार योद्धा, एक अधेड़ भाई, जिसने बाहर दरवाजे पर रह कर बहन की देखभाल करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी, वह आदमी जो बुनाई से प्रतिदिन 120 रू कमानेवाली अपनी पत्नी पर निर्भर है, ताकि वह दृढ़ता से अपनी बहन के साथ खड़ा रह सके.

डेढ़ महीने पहले वह अपने दो साथियों बबलू लोइतेंगबम और कांग्लेपाल की मदद से शर्मिला को किसी तरह मणिपुर से बाहर निकाल लाने में सफल हो गया था. पिछले छह साल से वह पुलिस की निगरानी में इंफाल के जेएन हास्पिटल के एक छोटे-से कमरे में बंद थी. जब भी उसे रिहा किया जाता, वह अपनी नाक से ट्यूब निकाल फेंकती और अपना अनशन जारी रखती. तीन दिन बाद मरणासन्न हालत में उसे ‘आत्महत्या के प्रयास के आरोप में फिर से गिरफ्तार कर लिया जाता और यह सिलसिला बार- बार दोहराया जाता. मगर मणिपुर में अनशन, गिरफ्तारी और उस ट्यूब के छह साल थोड़ा काम ही कर पाए थे. लड़ाई को दिल्ली में लाना ही था. 3 अक्तूबर, 2006 को दिल्ली पहुंच कर दोनों भाई-बहनों ने भारतीय लोकतंत्र की आशाओं से भरी वेदी जंतर-मंतर पर डेरा डाला. मीडिया को उनमें कोई रुचि नहीं थी. फिर एक रात पुलिस ने आकर उसे आत्महत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और उसे एम्स में फेंक दिया गया. उसने प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और गृहमंत्री को तीन भावुक चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई जवाब नहीं आया. यदि उसने यह करने के बजाय किसी विमान का अपहरण कर लिया होता तो शायद उसकी बात कुछ जल्दी सुनी जाती.

यह सच है कि आज मणिपुर टूटा हुआ और हिंसक समाज है. मगर उसका हल दृढ़ और प्रेरक नेतृत्व में ही खोजा जा सकता है, जिसे निभाने की जिम्मेदारी अब सरकार की है. बाकी दर्शन छोड़कर नैतिकता का कानून लागू कीजिए. बाकी सब अपने आप सुलझ जाएगा

सिंहजीत ने उस हास्पिटल के गलियारे में कहा था, ‘हम अपनी लड़ाई के बीच में हैं. परेशानियां तो आएंगी ही मगर फिर भी हम आखिर तक लड़ेंगे, चाहे इसमें मेरी बहन की जान ही क्यों न चली जाये. लेकिन अगर उसने यह अनशन शुरू करने से पहले मुझे बता दिया होता तो मैं उसे खुद के साथ यह कभी न करने देता. पहले हमें बहुत सारी चीजें सीखनी चाहिए थीं. बात कैसे करनी है, समझौता कैसे करना है, पर हमें कुछ भी नहीं पता था. हम गरीब थे और कुछ भी नहीं जानते थे.’ लेकिन एक तरह से देखा जाए तो शर्मिला की कहानी की विनम्र कर देनेवाली शक्ति का मूल उसकी उसी बिना मार्गदर्शनवाली शुरुआत में है. वह कोई बड़ा राजनीतिक आंदोलन नहीं चला रही और अगर आप करिश्माई भाषणों और जोशीले नायकत्व की उम्मीद कर रहे हैं तो लेटी हुई यह शांत महिला आपको निराश ही करेगी. उस 34 वर्षीया स्त्री का सत्याग्रह कोई वैचारिक उपज नहीं था. अपने आस-पास मृत्यु और हिंसा के चक्र की प्रतिक्रिया में यह उसका नितांत मानवीय उत्तर था, अंदर से एक आध्यात्मिक संदेश जैसा.

शर्मिला ने अपनी कांपती लेकिन स्पष्ट आवाज में कहा था, ‘पहले पन्ने पर मालोम के शव को देख कर मैं स्तब्ध थी. मैं एक शांति रैली में हिस्सा लेने जानेवाली थी, मगर मुझे लगा कि इस तरह सेना की हिंसा नहीं रोकी जा सकती. इसलिए मैंने अनशन पर बैठने का निश्चय किया.’ 4 नवंबर, 2000 को शर्मिला की मां सखी ने उसे आशीर्वाद दिया था, ‘तुम अपनी मंजिल पाओगी’ और फिर वे तटस्थ भाव से पलट कर चली गई थीं.

उसके बाद चाहे शर्मिला इंफाल में अपनी मां से पैदल पहुंचने की दूरी पर ही कैद थी, वे कभी नहीं मिलीं. दिल्ली की एक फिल्म-निर्मात्री कविता जोशी द्वारा बनाई गई एक फिल्म में सखी रोते हुए कहती हैं, ‘क्या फायदा है? मेरा दिल बहुत कमजोर है. मैं उसे देखते ही रो पड़ूंगी. इसीलिए मैंने तय किया है कि जब तक उसकी बातें नहीं मानी जातीं, मैं उससे नहीं मिलूंगी, क्योंकि इससे उसका संकल्प कमजोर पड़ जाएगा. हमें खाना नहीं मिलता तो हम किस तरह बिस्तर पर करवटें बदलते रहते हैं और सो भी नहीं पाते. वे जो थोड़ा-सा द्रव उसके शरीर में डालते हैं, वह उसके सहारे किस तरह अपने दिन और रातें बिताती होगी. अगर पांच दिन के लिए भी यह कानून हटा लिया जाए तो मैं अपने हाथों से उसे एक-एक चम्मच करके चावल खिलाऊंगी. उसके बाद वह मर भी जाती है, तो भी हमें संतुष्टि रहेगी कि मेरी शर्मिला की इच्छा पूरी हुई.’

शर्मिला के लिए यह साहसी, निरक्षर औरत ही भगवान है. यही वह मंदिर है, जिससे शर्मिला को शक्ति मिलती है. यह पूछने पर कि मां से न मिल पाना उसके लिए कितना कष्टकारक है, वह उत्तर देती है, ‘ज्यादा नहीं’, और थोड़ा रुकती है, ‘क्योंकि... मुझे नहीं पता कि मैं यह कैसे समझाऊं. पर हम सब यहां एक खास काम करने आए हैं और उसके लिए हम अकेले ही यहां आए हैं.’ अपने शरीर और दिमाग में संतुलन बनाए रखने के लिए वह दिन में चार-पांच घंटे योग करती है, जो उसने खुद से ही सीखा है. डाक्टर आपको बताएंगे कि शर्मिला का उपवास एक चमत्कार है. उसकी स्थिति का अनुमान लगाना ही आपको डरा देता है. लेकिन शर्मिला कभी किसी शारीरिक कष्ट की बात स्वीकार नहीं करती. वह मुस्कुरा कर कहती है, ‘मैं ठीक हूं, मैं ठीक हूं. मैं अपने ऊपर कोई अत्याचार नहीं कर रही. यह सजा नहीं है, यह तो मेरा फर्ज है. मुझे नहीं पता कि भविष्य में मेरे साथ क्या होनेवाला है. वह तो ईश्वर की मर्जी है. मैंने अपने अनुभव से यही सीखा है कि नियमितता, अनुशासन और बहुत सारे उत्साह के साथ आप कुछ भी पा सकते हैं.’ आप इन बातों को सुनी-सुनाई नीरस बातें कहकर खारिज कर सकते हैं, लेकिन जब वह बोल रही होती है तो यही बातें नायकत्व का चोला पहन लेती हैं.

उसके बाद तीन साल से कुछ नहीं बदला है. दिल्ली आने का भी कोई फायदा नहीं हुआ. अपने उपवास के दसवें साल में भी वह इंफाल हास्पिटल के एक गंदे से कमरे में किसी अदने अपराधी की तरह बंद है. यद्यपि इसका कोई कानूनी आधार नहीं है, फिर भी कभी-कभी अपने भाई के अलावा उसे किसी से भी मिलने की इजाजत नहीं है. यहां तक कि कुछ महीने पहले महाश्वेता देवी को भी उससे मिलने नहीं दिया गया. वह किसी के साथ और गांधी और मंडेला की जीवनियों लिए तरसती रहती है. उसका भाईचारे का भ्रम तथा महान और लगभग अमानवीय आशा का खजाना कभी उसका साथ नहीं छोड़ता.

लेकिन भाई की हताशा उतनी ही प्रबल है. शर्मिला के इस ऐतिहासिक सत्याग्रह की कद्र करने में देश की असफलता उस बेकद्री की एक झलक दिखाती है, जिसके चलते पूरा उत्तर-पूर्व नष्ट हो रहा है. जब 32 साल की मनोरमा देवी को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से संबंध रखने के आरोप में असम राइफल्स ने गिरफ्तार किया, तब अफ्स्पा के विरुद्ध शर्मिला के अनशन को चार साल हो चुके थे. एक दिन बाद इंफाल में मनोरमा का शव मिला था, जिस पर यातना और बलात्कार के भयानक निशान थे. मणिपुर उबल पड़ा था. पांच दिन बाद, 15 जुलाई, 2004 को मानवीय अभिव्यक्ति की सब सीमाएं लांघते हुए 30 आम महिलाओं ने असम राइफल्स के मुख्यालय कांग्ला फोर्ट पर नग्न होकर प्रदर्शन किया था. जो बुरा होना बचा था, उसे पूरा करती आम मांएं और दादियां चिल्ला रही थीं, ‘भारतीय सेना, हमारा बलात्कार करो.’ उन सबको तीन महीने के लिए जेल के अंदर डाल दिया गया.

उसके बाद सरकार द्वारा गठित किए गए हर आयोग ने घावों को बढ़ाने का काम ही किया है. मनोरमा हत्याकांड के बाद गठित किए गए जस्टिस उपेंद्र आयोग की रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई. नवंबर, 2004 में प्रधानमंत्नी मनमोहन सिंह ने अफ्स्पा की समीक्षा के लिए जस्टिस जीवन रेड्डी समिति गठित की. उस समिति ने अफ्स्पा को खत्म करने की सिफारिश की और साथ ही उसकी सबसे क्रूर शक्तियों को ग़ैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) एक्ट में स्थानांतरित करने की सलाह दी. इस निष्कर्ष पर हर आधिकारिक प्रतिक्रिया इसे ग़लत ही ठहराती है. तब के रक्षा मंत्नी प्रणब मुखर्जी ने अफ्स्पा को वापस लेने या उसकी शक्तियों को कम करने की बात इस आधार पर खरिज कर दी थी कि ‘अशांत इलाकों’ में ऐसी शक्तियों के बिना सेना ठीक से काम नहीं कर सकती.

रोचक बात यह है कि शर्मिला के मुद्दे को रोशनी में आने के लिए शांति के लिए नोबल पुरस्कार विजेता, ईरान की शिरीन एबादी की 2006 की भारत यात्ना का इंतजार करना पड़ा. पत्रकारों के बीच वे उबलते हुए बोली थीं, ‘यदि शर्मिला मरती है तो संसद इसकी सीधे तौर पर जिम्मेदार है. वह मरती है तो कार्यपालिका, प्रधानमंत्नी और राष्ट्रपति भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ नहीं किया...अगर वह मरती है तो आप सब पत्रकार भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि आपने अपना फर्ज नहीं निभाया...’

फिर भी पिछले तीन साल में कुछ नहीं बदला है. ‘मनोरमा मदर्स’ के असीमित आक्रोश के बाद इंफाल के कुछ जिलों से अफ्स्पा हटाया गया, लेकिन वायरस ने अपनी जगह बदल ली. जहां आर्मी ने छोड़ा, वहां मणिपुर पुलिस के कमांडो आ गए. अफ्स्पा के अत्याचार शासन की संस्कृति में ही घुल गए हैं. इसे आप ‘दंडविहीन संस्कृति’ भी कह सकते हैं, जहां मानवाधिकारों के हनन पर कोई सजा नहीं है. इस साल 23 जुलाई को एक पूर्व विद्रोही नवयुवक संजीत को पुलिस ने इंफाल के व्यस्ततम बाजार में भीड़ के सामने दिन-दहाड़े गोली मार दी. पास खड़ी एक निर्दोष महिला राबिना देवी, जिसे पांच महीने का गर्भ था, के सिर में भी एक गोली लगी और वह भी वहीं मारी गई. उसके साथ उसका दो साल का बेटा रसेल भी था. कई लोग घायल हुए. इस पूरे हत्याकांड की तसवीरें लेनेवाले अज्ञात फोटोग्राफर के लिए ये महज संख्याएं बनकर रह जातीं: पिछले साल हुई 265 हत्याओं में से सिर्फ दो, मगर इस बार तहलका में छपी ये तसवीरें सबूत थीं. मणिपुर फिर से उबल पड़ा.

चार महीने बाद भी लोगों का गुस्सा ठंडा नहीं हुआ. लोगों की भावनाओं से बेपरवाह मुख्यमंत्नी इबोबी सिंह ने पहले तो बेशर्मी से बच निकलने की कोशिश की. संजित की हत्या के दिन उन्होंने विधानसभा में दावा किया कि उनकी पुलिस ने मुठभेड़ में एक उग्रवादी मारा है. बाद में तहलका के आलेख के सामने आने पर वे बोले कि उन्हें उनके अधिकारियों ने गुमराह किया है और अब वे न्यायिक जांच करवाने के लिए मजबूर थे. हालांकि मुख्यमंत्री और मणिपुर के डीजीपी जॉय कुमार, दोनों तहलका पर घटना को तोड़ने-मरोड़ने का आरोप लगाते हैं.

अब भी थोड़ी-सी उम्मीद बाकी है. पिछले कुछ महीनों में राज्य में विरोध बढ़ा है और दर्जनों सामाजिक अधिकार कार्यकर्ताओं को निरंकुश राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत बहुत ओछे ढंग से गिरफ्तार किया गया है. इनमें एक प्रतिष्ठित पर्यावरण कार्यकर्ता जितेन युमनाम भी थे. 23 नवंबर को एक स्वतंत्न ‘सिटिजंस फैक्ट फाइंडिंग टीम’ ने ‘लोकतंत्र से मुठभेड़: मणिपुर में अधिकारों का हनन’ नाम की रिपोर्ट जारी की और गृह मंत्रालय को एक प्रेजेंटेशन दी. एक दिन बाद गृह सचिव गोपाल पिल्लै ने भूतपूर्व आइपीएस अधिकारी और फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य के.एस. सुब्रह्मण्यम को बताया कि मंत्रालय ने जितेन और दस अन्य लोगों का रासुका के तहत कारावास रद्द कर दिया है. एक और छोटी-सी आशा का संकेत यह है कि तहलका से एक साक्षात्कार में गृहमंत्नी पी चिदंबरम ने अफ्स्पा को अधिक मानवीय और जवाबदेह बनाने के लिए कुछ सुधारों की सिफारिश किए जाने के बारे में कहा है. इन सुधारों को अभी कैबिनेट का मंजूरी का इंतजार है.

उलझी हुई इस दुनिया में अक्सर किसी समस्या का समाधान एक अटल और प्रेरणादायक नेतृत्व में मिलता है. ऐसा नेतृत्व, जो अपने सामने आते प्रश्नों की नैतिकता को जगा सके और बिना किसी शर्त के उसे सही दिशा में सोचने को प्रेरित कर सके. शर्मिला का महान सत्याग्रह भी ऐसा ही एक नेतृत्व है. यह एक सच्चे और सभ्य समाज के विचार को फिर से आधार देता है. यह मृत्युपरक और संवेदनहीन क्रूरता के चेहरे पर क्रूरता का तमाचा मारने से इनकार कर देता है. उसकी याचना सीधी-सी है-सशस्त्न बल विशेष अधिकार अधिनियम को वापस लिया जाए. यह भारतीय गणराज्य के उस विचार में तो कहीं नहीं था, जिसे इसके संस्थापकों ने हमें वसीयत में दिया है. यह अमानवीय है.

यह सच है कि आज मणिपुर टूटा हुआ और हिंसक समाज है. मगर उसका हल दृढ़ और प्रेरक नेतृत्व में ही खोजा जा सकता है, जिसे निभाने की जिम्मेदारी अब सरकार की है. बाकी दर्शन छोड़कर नैतिकता का कानून लागू कीजिए. बाकी सब अपने आप सुलझ जाएगा. लेकिन दुर्भाग्यवश, जब हम हिंसा की भयानक तारीख 26/11 की बरसी मनाना याद रखते हैं, हम उस औरत को भूल जाते हैं, जिसने असीम हिंसा का उत्तर असीम शांति से दिया.

यह हमारे समय का एक दृष्टांत है. यदि हमें रुक कर कुछ सोचने पर मजबूर नहीं करती तो कोई भी चीज ऐसा नहीं कर सकेगी. यह असाधारण होने की कहानी है. असाधारण इच्छाशक्ति, असाधारण सादगी और असाधारण उम्मीदों की. सूचनाओं से भरे हुए इस व्यस्त समय में अपनी बात किसी को सुनवाना असंभव ही है, मगर यदि इरोम शर्मिला की कहानी सुन कर हम नहीं ठिठकते तो हम कभी नहीं ठिठकेंगे.’